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पास क्यों आई । सुमधुर कंठ से भाववाही स्तुतियों से स्तवना करती मयणा की अपेक्षा उंबर का प्रभु के प्रति सद्भाव-समर्पण भाव विशेष था । मयणा ने तो शास्त्राभ्यास किया है। प्रभु का स्वरुप जानती है, और स्तवना करती है। उंबर को कुछ भी पता नहीं है। पहली बार देखा है, तो भाव कहाँ से आए ? प्रभु कौन है। उनके गुण का लेश भी परिचय नहीं है । तो भी मयणा के माध्यम से प्रभु को पहचानकर तन्मय बन गए है । मयणा सती स्त्री है । दैवी शक्ति है, महान नारी है, इससे विशेष शक्ति कोई नहीं हो सकती । निशाचर्चा के बाद उंबर के अंतर की यह आस्था बनी है। सती स्त्री हर जगह नहीं झुकती, ऐसी सती स्त्री जिसे नमस्कार करती हो, झुकती हो, वह निश्चित दिव्य तत्त्व होना चाहिए। ओघ संज्ञा (सामान्य) से प्रभु की दिव्यता दिखती हैं। अहोभाव पैदा हुआ है, 'अहो ! यह कौन हैं, सती स्त्री भी इन्हें नमस्कार करती हैं। बस इसी ओघ संज्ञा के अहोभाव ने उंबर से आत्म-समर्पण करवाया हैं। हाथ जोडकर खडे है, स्तुति के लिए शब्दो के साथिये नहीं है, है तो बस अहोभाव, आत्मभाव का समर्पण । मयणा स्तुतियो की सरगम बहाती है, उंबर तो दो हाथ जोडकर मूक खडा है। शरीर खडा है, आत्मा प्रभुमय है।
जगत का नियम है, जहाँ अहोभाव होता है, वहाँ जगत भूला जाता है । उंबर जगत भूलकर जगत्पति में एकाकार बने हैं । पहली बार दर्शन किए और प्रभुमय बन गए । तादात्म्य भाव से प्रभु-दर्शन कर रहे हैं । भक्तियोग का नियम है, भक्त भगवानमय बनता है, तो भगवान को भक्त में अवतरण लेना ही पड़ता है । भक्त के आगे भगवान की यह लाचारी है । इससे एक अपेक्षा से जगह जगह पर भगवान से भक्त की ताकत अधिक बताई है । पर भक्त बनना कठिन है । तिलक लगाकर भक्त बन दिखना जितना आसान है, वास्तविक भक्त बनना उतना ही कठिन है । भक्त बनने के लिए सर्वस्व समर्पण भाव चाहिए । मेरा कुछ भी नहीं है और मैं प्रभु का हूँ, सर्वस्व समर्पण भाव की इस भूमिका में उंबर आता है । भूमिका जोरदार है तो सामने से जवाब भी सचोट मिलता है । पुष्पमाला और बीजोरा दोनो मंगल प्रतीक उंबर के पास आते हैं ।
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा