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१५९ सर्वरूपसे एक श्री हरि, श्री हरि निराकार, श्री पुरुषोत्तम साकार, हरि स्वेच्छासे बहुरूप
१६० विश्व चैतन्याविष्ठित, विशिष्टाद्वैत और शुद्धाद्वैत, परमात्म-सृष्टि और जीव-सृष्टि, हरि और माया, जीव - परिभ्रमण, परमात्मा का अनुग्रह, ब्राह्मी स्थिति, सर्व ब्रह्म है, हरिका अश हूँ, केवल पद, वस्तु, अवस्तु १६१ सहजात्मस्वरूपीकी दुविधा, सभी दर्शनोमे आत्माकी शका, आस्था, आत्माकी व्यापकता, मुक्तिस्थान आदिमें शका ही शका, सद्गुरुका अयोग, दर्शनपरिषह, जहर पी या उपाय कर ।
१६२ शकारूप भँवरमे, यथेष्ट सत्समागमकी दुर्लभता, सामान्य सत्समागमी स्वविचार दशाके लिये प्रतिबन्चरूप
१६३ कलिकालका स्वरूप, हमें भी कलियुगका प्रसगी जीवोकी वृत्तिविमुखता हमारा सग, परम दुख १६४ हे हरि । तेरा स्वरूप परम अचित्य, अद्भुत । अनुग्रह कर ।
२४ वाँ वर्ष
निर्भयता
१६५ केवलबीजसपन्न, सर्व गुणसपन्न भगवानमें भी अपलक्षण, केवलज्ञान तकका परिश्रम व्यर्थ नही जायेगा, नि. शकता, आदिकी जरूरत, मोक्षकी नही १६६ सत्पुरुषके एक-एक वाक्यमें एक-एक शब्दमें अनंत आगम, मगलरूप वाक्य -- मायिक सुखको इच्छा छोडे विना छुटकारा नही, मायिक वासनाके अभाव के लिये सद्गुरुको आत्मार्पण, मोक्षमार्ग आत्मामे है । १६७ सत्य एक हैं, दो प्रकारका नही, व्यवहारमें रहते हुए वीतराग, कबीरपथीके सत्सगके लिये ज्ञानावतारकी प्रेरणा और शिक्षा १६८ किसे ससारका सग अच्छा नही लगता ग्यारहवें गुणस्थानकसे गिरे हुएका मोक्ष १६९ अभिलाषा के प्रति पुरुषार्थ करना
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१७० आत्माने ज्ञान पा लिया, ग्रन्थिभेद हुआ, अतिम निर्विकल्प समाधि सुलभ, गुप्तता, वेदोदय तक गृहवास, तीर्थंकरके किये अनुसार करनेकी इच्छा, उपशम और क्षपक श्रेणियां, आधुनिक मुनियोका सूत्रार्थ श्रवणके भी अयोग्य
१७१ पत्र लिखनेका उद्देश, सग किसका ? १७२ अनंत कालसे स्वयको स्वविषयक भ्राति, परम रहस्य, ईश्वरके घरका मर्म पानेका महामार्ग, छुटकारा कब ?
१७३ व्यवहार-वघन न होता तो अपूर्व हितकारी होता, मार्ग मर्मदाता,
१७४ सत्सग वडेसे वडा साधन, सत्पुरुष श्रद्धा १७५ सत्सगकी वृद्धि करें १७६ ससार परिभ्रमणका मुख्य कारण, दोनवधुकी दृष्टि, अलख 'लय' में आत्मा, अवधूत हुए, अवधूत करने की दृष्टि, भक्तिसत्सग दुर्लभ
१७७ धर्मेच्छुको पत्र - प्रश्नादि वघनरूप, नित्यनियम
१७८ अभी धर्म बतानेके अयोग्य हूँ, पहले जिज्ञासुता
१७९ उपशम भाव
१८० दृढज्ञानप्राप्तिका
लक्षण, अमरवरके आनन्दका अनुभव, 'इस कालमें मोक्ष'
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जीवोको सद्दर्शन करनेमें बाघक १८२ निर्वाण मार्ग के इच्छुक विरल, इस कालमें हमारा जन्म कारणयुक्त १८३ सत्पुरुषसेवा, जीवने अपूर्वको नही पाया, पूर्वानुपूर्वकी वासनाके त्यागका अभ्यास, क्रिया आदि सब आत्माको छुडानेके लिये १८४ आघार निमित्तमात्र, निष्ठा सबल करें १८५ हृदय भर आया है
१८६ मार्गानुसारी होनेका प्रयत्न करें १८७ अतिम स्वरूप समझमें आया है, परिपूर्ण स्वरूपज्ञान तो उत्पन्न, कुनबी - कोली
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का स्याद्वाद, अमृतके नारियलका पूरा वृक्ष २५७ १८१ यहाँ तीनो काल समान, प्रवृत्ति मार्ग
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