________________
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गत श्रावकधर्म-वर्णन
२५
faraणेयग्गमणो संबुडकाओ य अंर्जाल किच्चा । स सरूवे संलोणो वंदण-अत्थं विचिततो ॥५५ किच्चा देसपमाणं सव्वं सावज्जवज्जिदो होउ । जो कुव्वदि सामइयं सो मुणिसरिसो हवे ताव ॥५६ पहाण - विलेवण- भूसण- इत्थीसंसग्ग-गंध-धूवादि । जो परिहरेदि णाणी वेंरग्गाभूसणं किच्चा ॥ ५७ दो पिसावासं एयमत्त निव्वियडी । जो कुणदि एवमाई तस्स वयं पोसहं विदियं ॥ ५८ तिविहे पत्तम्मि सया सद्धाइगणेहि संजुदो गाणी । दाणं जो देदि सयं णवदाणविहीहि संजुत्तो ॥ ५९ सिवखावयं च तिदियं तस्स हवे सव्र्वसिद्धिसोक्खयरं । दाणं चउविहं पिय सव्वेंदाणाण सारयरं ॥ ६० मोयणदाणं सोखं ओसहदाणेण सत्थदाणं च जीवाण अभयदाणं सुदुल्लहं सव्वदाणेसु ॥ ६१ भोयणदाणे दिण्णे तण व दाणाणिहोंति दिण्णाणि । भुवख-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीण ।। ६२
मोयणबलेण साहू सत्थं सेवेदि रत्ति दिवस पि । भोयणवाणे दिण्णं पाणा वि य रविख होंति ॥ ६३ इह-परलोयणिरीहो दाणं जो देदि परमभत्तीए । रयणत्तए सुठविदो संधो सयलो हवे तेण ।। ६४ उत्तमपत्तविसेसे उत्तमभत्तीएँ उत्तम दाण । एयदिणे वि य दिण्णं इंदसुहं उत्तमं देदि ।। ६५ पुन्वषमाणकदाणं सव्वदिसाणं पुणो वि संवरण ।
इदियविसयाणं तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं । ६६ वासादिकयमाणं दिणें दिणे लोह- कामसमणठठ् । सावज्जवज्जणं तस्स चउत्थं वयं होदि ||६७ व्यापारसे रहित होकर, जिन-वचनमें मनको एकाग्र करके, कायको संकोच कर, हाथकी अंजलि बाँध कर, अपने स्वरूपमें लीन होकर, अथवा वन्दनापाठके अर्थका चिन्तवन करता हुआ, देशका प्रमाण करके और सर्व सावद्य योगको छोड़कर जो श्रावक सामायिक करता है, वह उस समय ( वस्त्र - वेष्टित ) मुनिके सदृश होता है ।।५४ - ५६ ।। अब दूसरे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतका वर्णन करते है
ज्ञान श्रावक सदा ही अष्टमी और चतुर्दशी इन दोनों पर्वोमें स्नान विलेपन भूषण स्त्री-संसर्ग गंध धूप आदिका परिहार करता है और वैराग्यरूप आभूषण धारण करके उपवास, एकाशन अथवा निर्विकार नीरस भोजन आदिको करता है, उसके प्रोषधोपवास नामका दूसरा शिक्षाव्रत होता है ।।५७-५८।। अब तीसरे अतिथि संविभाग शिक्षाव्रतका वर्णन करते है- जो श्रद्धा आदि गुणोंसे संयुक्त ज्ञानी पुरुष सदा तीन प्रकारके पात्रोंको नौ प्रकारकी दानविधिसे अर्थात् नवधाभक्ति से संयुक्त होकर स्वयं दान देता है, उसके यह तीसरा शिक्षाव्रत होता है। यह चार प्रकारका दान सब दानोंमें सारभुत है और सब सुखोंका तथा सिद्धियोका करनेवाला है ।। ५९-६० ।। औषधिदानके साथ भोजनदानसे सुख प्राप्त होता हैं। शास्त्रदान और जीवोंका अभयदान देना सर्वदानोंमें अति दुर्लभ है ।। ६१ ।। भोजनदान के देनेपर शेष तीनों ही दान दिये गये होते है । क्योंकि प्राणियोंको भूख और व्यासकी व्याधि दिन प्रतिदिन होती है ।। ६२ ।। भोजनके बलसे ही साधु रात-दिन शास्त्रका अभ्यास करता है और भोजनदानके देनेपर प्राण भी सुरक्षित रहते है ।। ६३ ।। जो पुरुष इस लोक और परलोकके फल की इच्छासे रहित होकर परम भक्तिसे दान देता है, वह सर्वसंवकों रत्नत्रय धर्ममें स्थापित करता हैं । उत्तम पात्रविशेषको उत्तम भक्तिसे एक दिन भी दिया उत्तम दान इन्द्रलोकके सुखको देता हैं ।।६४-६५।। अब चौथे देशावकाशिक शिक्षाव्रतको कहते है - जो पुरुष लोभ और काम बिकारके शमन करने के लिए तथा पापोंके छोडने के लिए वर्ष आदिका प्रमाण करके पूर्व मे किये हुए सर्व दिशाओं के प्रमाणको फिर भी संवरण करता है और इन्द्रियोंके भोग उपभोगरूप विषयोंका फिर भी दिन दिन संवरण करता है, उसके यह देशावकाशिक नामका चौथा शिक्षाव्रत होता है ॥ ६६-६७।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org