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सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूवबलि-पणीदो
छपरवंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो
तस्स पंचमे खंडे वग्गणाए फासाणुओगदारं
सयलोवसग्गणिवहा संवरणेणेव जस्स फिट्टति ।
पासस्स तस्स णमित्रं फासणुयोअं परूवेमो ॥ फासे त्ति ॥१॥
जं तं फासे त्ति अणुयोगद्दारं पुबमादिळं तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो ति पुवुद्दिवअहियारसंभालणमेदेण सुत्तेण कदं ।
जिसकी आराधना करने से ही सब प्रकारके उपसर्गोके समुदाय नष्ट हो जाते हैं, उस पार्श्व जिनेन्द्रको नमस्कार करके मैं स्पर्श अनुयोगद्वारका निरूपण करता हूं ॥
अब ‘स्पर्श अनुयोगद्वार' का प्रकरण है ॥१॥
जो पहले स्पर्श अनुयोगद्वारका निर्देश कर आये हैं उसके अर्थका कथन करते हैं। इस प्रकार इस सूत्रद्वारा पहले कहे गये अधिकारकी सम्हाल की गई है।
विशेषार्थ- पहले सत्प्ररूपणाकी उत्थानिकामें जो कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंका नाम-निर्देश कर आये हैं, उनमेंसे प्रारम्भके दो अनुयोगद्वारोंका विवेचन हो चुका है। स्पर्श यह तीसरा अनुयोगद्वार क्रमप्राप्त है। इसी बातका ज्ञान कराने के लिये 'फासे ति' यह सूत्र आया है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
( अ-आ प्रत्योः 'संभरणणेव' इति पाठः ।
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