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सरस्वती
खरीदते हैं उसे 'श्रयात' कहते हैं और जो माल विदेशों को भेजते हैं अर्थात् विदेशों में बेचते हैं वह 'निर्यात ' कहलाता है । जैसे १९३०-३१ में भारतवर्ष ने २ अरब रुपये का माल विदेशों से ख़रीदा था। भारत का 'श्रयात' व्यापार २ अरब का था । इसी वर्ष इस देश ने २ अरब २६ करोड़ का माल विदेशों के हाथ बेचा था । यह 'निर्यात' व्यापार हुआ ।
अगर 'निर्यात' और 'श्रायात' के व्यापार की क़ीमत बराबर हुई तो लेन-देन बराबर हो जाता है। अगर इंग्लैंड से भारत ने पचास करोड़ का कपड़ा ख़रीदा और इंग्लेंड के हाथ पचास करोड़ का गेहूँ बेचा तो इसकी ज़रूरत नहीं रह जाती कि कोई रक़म इंग्लेंड से हिन्दुस्तान श्राये या हिन्दुस्तान से इंग्लैंड जाय । व्यापारी लोग एक-दूसरे पर हुडी-पुरी करके लेखा-जोखा बराबर कर लेते हैं। लेकिन अगर इस देश ने माल बेचा ज्यादा और ख़रीदा कम तो ज्यादा ख़रीदने वाले देश को यहाँ सोना भेजना पड़ेगा ।
अप्रत्यक्ष आयात व निर्यात - एक बात और ध्यान देने की है । 'निर्यात' प्रत्यक्ष भी होता है और अप्रत्यक्ष भी । 'श्रयात' प्रत्यक्ष भी होता है और अप्रत्यक्ष भी । प्रत्यक्ष आयात तो वह है जो वास्तविक माल की सूरत में आता है, जैसे कपड़ा, मशीन, मोटर इत्यादि । अप्रत्यक्ष श्रायात वह है जो श्राता तो नहीं है, लेकिन उसकी कीमत देनी पड़ती है। प्रत्यक्ष निर्यात वह है, जिसे हम जहाज़ पर लादकर भेजते हैं, जैसे गेहूँ, चावल इत्यादि । प्रत्यक्ष निर्यात में माल तो नहीं जाता है, लेकिन उसकी कीमत हमें मिल जाती है ।
तो क्या यह पहेली है ? अप्रत्यक्ष आयात और निर्यात कौन-सी चीज़ है जो श्राती तो नहीं है, लेकिन उसकी क़ीमत देनी पड़ती है और जाती नहीं, लेकिन दाम मिल जाते हैं।
अप्रत्यक्ष निर्यात वह नकद रक्कम है जो देश में पूँजी के लिए श्राती है और व्यवसाय में लगाई जाती है । जो नकद रक्कम विदेशों में लगी हुई पूँजी के मुनाफ़े या सूद में ाती है वह प्रत्यक्ष निर्यात है। जो रुपया मुसाफ़िर लोग किसी देश में जाकर ख़र्च कर आते हैं वह उस देश के निर्यात में समझा जाता है । अप्रत्यक्ष प्रायात वह रकम है जिसे कोई देश अपने यहाँ लगी हुई विदेशी पूँजी की मद सें सूद या मुनाफ़े के खाते में अदा करता है। जो पेंशनें
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विदेशी मुलाज़िमों को दी जाती हैं उनको रकम अप्रत्यक्ष श्रायात में ही समझी जाती है ।
प्रत्यक्ष आयात और निर्यात को अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं भारतवर्ष का उदाहरण लेता हूँ । इस देश में रेलवे में तथा अन्य परदेशी कम्पनियों में करोड़ों रुपये लगे हुए हैं। रेलवे में जो मुनाफ़ा होता है, परदेशी पूँजीपतियों को प्रतिवर्ष दिया जाता है । यह रकम अप्रत्यक्ष श्रायात कही जायगी, क्योंकि इस रकम के बदले में हमारे पास कोई माल नहीं आता है, प्रतिवर्ष रक्कम ही अदा करन पड़ती है। जो अँगरेज़ मुलाज़िम भारत सरकार में काम कर चुके हैं, प्रतिवर्ष अपनी पेंशनें लेते हैं। अनेक मुलाज़िम अपनी अपनी तनख़्वाहों से बचाकर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपया इंग्लेंड भेजते हैं । यह सब अप्रत्यक्ष श्रायात समझा जाता है, क्योंकि इस रकम के बदले में जो चीज़ हिन्दुस्तान को मिलती है वह अप्रत्यक्ष है ।
[ भाग ३८
इसी प्रकार प्रत्यक्ष निर्यात को भी समझ लीजिए । हिन्दुस्तान का प्रत्यक्ष निर्यात बहुत कम है, क्योंकि भारतवर्ष की पूँजी विदेशों में कहीं नहीं लगी है और न हिन्दुस्तानी ही विदेशों में जाकर ऐसी ऊँची ऊँची जगहों पर नियुक्त हैं कि स्वदेश को धन भेजें। इस देश का अप्रत्यक्ष आायात बहुत ज़्यादा है । हिन्दुस्तान के ऊपर क़र्ज़ है, उसे पेंशनें देनी पड़ती हैं और यहाँ से करोड़ों रुपया अँगरेज़ मुलाज़िम बचाकर अपने देश को भेजते हैं। केवल क़र्ज़ की अदायगी की मद में ५० से ६० करोड़ रुपये तक की रकम भारतवर्ष प्रतिवर्ष इंग्लिस्तान को भेजता है
३१ मार्च १९३१ को भारत सरकार पर इंग्लिस्तान का निम्नलिखित कर्ज़ था -
लाख पौंड
३१ मार्च १९३१ तक पुराना क़र्ज़ २९२७ महायुद्ध की सहायता की मद में रेलवे की न्यूटी इंडिया-बिल
१६१·३
५१८.६
प्राविडेंट फंड
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"
33
६०
२६.६
करोड़
रुपया
३९०.२६
करोड़
७६६·५ = १०२-२
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