Book Title: Saptbhangi Prakash
Author(s): Tirthbodhivijay
Publisher: Borivali S M P Jain Sangh

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Page 9
________________ संगति का प्रयास । * प्रमाणनयतत्त्वालोक में प्ररूपित सकलादेश की रत्नाकरावतारिका में दर्शित प्रचलित व्याख्या की समीक्षा तथा संभवित शास्त्रयुक्तिअबाधित व्याख्या की नव्यानुप्रेक्षापूर्वक पदार्थसंगति का प्रयत्न । * 'स्यादस्ति एव' ये प्रथमभंगस्थान ही सकलादेश विधया अनंत धर्मात्मक सकल वस्तुवाचक बन जाता है अत: वो प्रमाणवाक्य है, ऐसे पू. मलयगिरि सूरिजी के वचन की समीक्षा, एवं ऐदंपर्य को स्पर्शने का प्रयत्न । * 'अह देसो सम्भावे देसोऽसब्भावपज्जवे जस्स' ये सम्मतितर्क की गाथा पे पू. अभयदेवसूरिजी कृत विवरण की समीक्षा और ऐदंपर्य को पाने का प्रयास। * “एवं सत्तवियप्पो..." सन्मतितर्क की ये गाथा पे पू. अभयदेवसूरिजी कृत विवरण की नयोपदेश आदि ग्रंथ मे पू. महोपाध्याय यशोविजयजी म. ने की हुइ संगति की समीक्षा और उसके तात्पर्यार्थ के तल तक पहुंचने की प्रयति। . * स्यात्कार एवं एवकार का प्रयोग नयवाक्य में ही होता है, लेकिन प्रमाणवाक्य में नहीं होता है - वैसी भेदक स्पष्टता... * नयवाक्य एवं प्रमाणवाक्य का स्वरुप क्या हो सकता है उसका शास्त्राधीन रहकर नवतम अनुप्रेक्षायुक्त स्पष्टीकरण । * नयवाक्य एवं दुर्नयवाक्य में रहे हुए भेद की अन्यान्य शास्त्राधार से निष्कृष्ट स्पष्टता । उपसर्जनता पदार्थ का स्पष्टीकरण । * महोपाध्यायजी श्री यशोविजयजी कृत नयोपदेश मे कथित स्वसमयवाक्यत्व परसमयवाक्यत्व नयवाक्यत्व दुर्नयवाक्यत्व के निष्कर्षस्पर्शी लक्षणों का सार-संग्रह । * धर्मदेशना प्रमाणरूप ही होती है, वैसा एकांत नहीं है, धर्मदेशना नयरूप भी होती है अत: उसमें भी स्याद्वाद है वैसा सयुक्तिक निरूपण। ऐसी अनेक नवीन अनुप्रेक्षाओं से समृद्ध यह ग्रंथ अवश्य ग्राह्य व उपयोगी बनेगा ऐसी आशा सह। - गणिवर्य लब्धिवल्लभ वि.म. V

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