Book Title: Saptbhangi Prakash Author(s): Tirthbodhivijay Publisher: Borivali S M P Jain Sangh View full book textPage 7
________________ अनेकांत, नय और सप्तभंगी जैनदर्शन की मौलिक धरोहर है। इस धरोहर को अनगिनत सरस्वतीपुत्रोने अपनी मार्गानुसारी प्रतिभा से अलंकृत कीया है, उसी के कारण जैन वाङ्मय समुद्र की तरह अपना अपार विस्तार धारण करता है... और यह विस्तार का वर्धन अद्यावधि अविरत है, क्योंकि प्रतिभा की परंपरा में नूतन प्रतिभाओंने अभी भी जन्म धारण करने का बंद नहीं कीया है .... नई प्रतिभा नया प्रकाश लाती है, नया सब सीसा नहीं होता और पुराना सब सोना नहीं होता.... नया सोना भी हो ही सकता है ..... और ऐसी क्रांति सभर प्रतीति प्रस्तुत ग्रंथ के अवलोकन से कीसी भी निष्पक्ष विद्वान को हो जाएगी। सप्तभंगी जैसे विषय यूहि दुर्गा है, तब उसके पर नवोन्मेष से भरी तर्क संपूर्ण अनुप्रेक्षा करना, उसे शास्त्रीय रीति से सुसंगत बनाना और पूर्वाचार्यो की सप्तभंगी विषय व्याख्या- विवेचना में प्राप्त दिशासूचन में से भी नवनीत निकाल के पदार्थ को सुस्पष्ट करना ये प्रचंड प्रतिभा, तलस्पर्शी ज्ञान और आत्मविश्वास के बिना संभव नहीं है.... केवल चौदह वर्ष संन्यस्त पर्याय में अनेक विषयों की ज्ञानसमृद्धि के साथ प्रस्तुत ग्रंथ को जन्म देनेवाले पूज्य पंन्यास श्री पद्मबोधि विजय म.सा. शिष्य मुनिराज श्री तीर्थबोधिविजयजी ने इस ग्रंथ की रचना से स्वाभिधान सार्थक तो कीया ही है, साथ साथ आज तक में सप्तभंगी के विषय में जो भी प्ररूपणा हुई है उस में रही हुइ भ्रमणा का, वैशद्य और ताटस्थ्यसे उन्मूलन करने का प्रयास कीया है, यत: अभ्यासु वर्ग के उपर पारमार्थिक उपकार हो सके..... इस रचना से कदाचित् कोइ क्षुब्धविक्षुब्ध हो सकता है, परंतु मुनिश्रीने इस ग्रंथ को अपनी मौलिक प्रतिभा से तर्क और शास्त्रीयता का अभेद्य कवच पहेना के रखा है, जो देखने के बाद अवश्य सराहना और सलाम से अभिनंदन का मन हो जाएगा... मुनिश्री की विनम्रता भी प्रशंसनीय है, इस ग्रंथ मे छद्यस्थता से संभवित क्षतिओं का निदर्शन कराने के लिए विद्वानों कों मुनिश्रीने करबद्ध प्रार्थना की है... और क्षति अगर वास्तव में है तो उसका परिष्कार करने के लिए मुनिश्री तत्पर रहे है । ✪✪✪✪✪✪✪AAA IVPage Navigation
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