Book Title: Saptbhangi Prakash Author(s): Tirthbodhivijay Publisher: Borivali S M P Jain Sangh View full book textPage 8
________________ आइए अब देखते है... मुनिराजश्रीने प्रस्तुत ग्रंथ में क्या क्या अभिनव योगदान दिया है.... * जब ३ पदों के भंग पे विचार करते है तब असंयोगी द्विकसंयोगी और त्रिकसंयोगी ऐसे कुल मिलाके सात ही भंगस्थान हो सकते है। ये सप्तभंगी का नया उजाला है। * दो विरुद्ध धर्म-युगल से सप्तभंगी की रचना नहीं होती है, अपितु एक ही पर्याय पर सप्तभंगी बनती है, ये बात की शास्त्रपाठ के साथ स्पष्टता... * सन्मतितर्क ग्रंथ में सप्तभंगी का तीसरा भंग है 'स्यादवक्तव्य एव' और प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार ग्रंथ में तीसरा भंग है 'स्यादस्ति नास्ति एव' ये विसंवाद के पीछे संभाव्यमान युक्ति की अनुप्रेक्षा तथा मतद्वय का समन्वय प्रयास। * सप्तभंगी केवल व्यंजनपर्याय पर ही अवलंबित है इस बात का सयुक्तिक प्रतिपादन । * व्यंजनपर्याय कीसे कहते है? इस विषय की सन्मतितर्क, द्रव्यगुणपर्यायरास, विशेषावश्यकभाष्य, अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरण आदि ग्रंथो के आधार से निष्कर्षपूर्ण स्पष्टता.... * भाव नय और अभाव नय की वक्तव्यता से सप्तभंगी की प्रवृत्ति है ये नवीन अनुप्रेक्षा है... * “अवक्तव्य" पद से वाच्य जो अर्थ है वह सर्वथा अवक्तव्य नही है, इस बाबत को प्रमाणनय तत्त्वालोक, स्याद्वाद मंजरी, नयोपदेश, प्रवचनसारोद्धार इत्यादि ग्रंथो के संदर्भ-साक्षी-पूर्वक दीर्घचर्चित कीया है और पदार्थ की शास्त्रीयता को सिद्ध कीया है। * अवक्तव्य और अनभिलाप्य के बीच में जो भेद है उसे शास्त्राधीन रहकर सिद्ध कीया है। * भंगस्थान सात ही होते है इस बारे में भी स्याद्वाद है ये एक नई ज्योति है... * सकलादेश विकलादेश संबंधी विस्तृत विचारणा तथा उसकी समीक्षा एवं MMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMPage Navigation
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