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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
होते हैं, उसी प्रकार इञ्-प्रत्ययान्त काशकृत्स्नि और अण्-प्रत्ययान्त काशकृत्स्न दोनों शब्द निश्चय से एक ही व्यक्ति के वाचक हैं ।'
काशकृत्स्नि का अन्यत्र उल्लेख-महाभाष्य के प्रथम आह्निक के अन्त में ग्रन्थवाची पाणिनीय और आपिशल के साथ 'काशकृत्स्न' ५ पद पढ़ा है, उस से व्यक्त है कि पतञ्जलि उस को काशकृत्स्नि प्रोक्त
मानता है। पतञ्जलि ने काशकृत्स्नि आचार्य प्रोक्त मीमांसा का असकृत् उल्लेख किया है। महाकवि भास के नाम से प्रसिद्ध 'यज्ञफल' नाटक में भी काशकृत्स्नि प्रोक्त काशकृत्स्न मीमांसाशास्त्र का
उल्लेख है। कात्यायन ने भी अपने श्रौतसूत्र में काशकृत्स्न आचार्य १० का उल्लेख किया है। अमाघा वृत्ति के 'काशकृत्स्नीयम्' निर्देश के अनुसार व्याकरणप्रवक्ता काशकृत्स्न है।'
काशकृत्स्न का अन्यत्र उल्लेख-वोपदेव ने अष्ट शाब्दिकों में काशकृत्स्न का उल्लेख किया है। जैन शाकटायनीय अमोघा वृत्ति के
पूर्वनिर्दिष्ट त्रिकं काशकृत्स्नीयम् उदाहरण में स्मृत ग्रन्थ का प्रवक्ता १५ तद्धित-प्रत्यय की व्यवस्थानुसार काशकृत्स्न है। भट्ट पराशर ने
१. इसी प्रकार पाणिनीय तन्त्र के प्रवक्ता के लिए पाणिनि-पाणिन, वातिककार के लिए कात्य-कात्यायन, संग्रहकार के लिए दाक्षि-दाक्षायण दो-दो शब्द प्रयुक्त होते हैं। इनके लिए इसी अन्य के तत्तत् प्रकरण द्रष्टव्य हैं।
२. काशकृत्स्निना प्रोक्तं काशकृत्स्नम् । इञश्च (अष्टा० ४।२।११२) से २० गोत्रप्रत्ययान्त से अण् प्रत्यय । आपिशलं काशकृत्स्नमिति-प्रापिशलिकाश
कृत्स्निशब्दाभ्यामित्रश्चेत्यण् । न्यास ४।३।१०१॥ काशकृत्स्नेन प्रोक्तं काशकृत्स्नीयम्। वृद्धाच्छ: (अष्टा० ४।२।११४॥) सूत्र से अण्प्रत्ययान्त से छ (= ईय) प्रत्यय । न्यासकार ने ६।२।३६ पर 'काशकृत्स्नेन प्रोक्तमित्यण'
लिखा है, वह अशुद्ध है। ४।२।११४ से प्राप्त छ का निषेध कौन करेगा ? २५ अतः यहां न्यास ४।३।१०१ के सदृश 'काशकृत्स्निना प्रोक्तमित्यण' पाठ होना चाहिए।
३. महाभाष्य ४।१।१४, ९३; ४१३३१५५॥ ४. काशकृत्स्नं मीमांसाशास्त्रम् । अङ्क ४, पृष्ठ १२६ ॥
५. सद्यस्त्वं काशकृत्स्निः । ४।३॥१७॥ ३० ६. देखो इसी पृष्ठ की टि० २। ७. पूर्व पृष्ठ ६६ ।
८. द्र० पृष्ठ ११६, टि० ७ ।