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संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास
सागर उपाध्याय ने अपने प्रश्रय दाता भुजनगर (भुज) के स्वामी भारमल्ल के पुत्र राजा भोज की तुष्टि के लिये 'भोज - व्याकरण' के नाम से एक संस्कृत भाषा का व्याकरण लिखा था।' इस राजा भोज का वि० सं० १६८८ से १७०२ तक सौराष्ट्र पर शासन था । स्व-रचित भोजव्याकरण की विशिष्टता का संकेत विनयसागर उपाध्याय ने निम्न पद्य में किया है ।
सकल-समीहित-तरणं हरणं दुःखस्य कोविदाभरणम् । श्रीभोज व्याकरणं पठन्तु तस्मात् प्रयत्नेन ॥
[द्र० श्री पं० बलदेव उपाध्याय विरचित 'संस्कृत शास्त्रों का १० इतिहास' पृष्ठ ६०८, प्र० सं०, सन् १९६६ ]
१९ - भट्ट अकलङ्क (वि० की १७ वीं शती)
मैंने व्याकरण शास्त्र के इतिहास ग्रन्थ में व्याकरण प्रवक्ता भट्ट कलङ्क को वामन और पात्यकीर्ति के मध्य में संख्या ६ पर रखा १५ था । और साथ ही इसे बौद्धों के साथ शास्त्रार्थंकर्त्ता भट्ट प्रकलङ्क समझ कर इस का काल सं० ७००-८०० लिखा था । इसे पढ़ कर हसन (कर्नाटक) के राजकीय कालेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष मा० देवे गौड एम० ए० ने २६ - ८- ७६ को मुझे एक पत्र लिखा ।
6.00.
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मुझे प्राप से यही निवेदन करना है कि मंजरी - मकरन्द २० टीका लिखने वाला भट्ट प्रकलङ्क देव वि० सं० १७ वीं सदी का है । इस के गुरु का नाम अकलङ्कदेव है ।
भट्ट अकलङ्कदेव ने 'कर्णाटक- शब्दानुशासनम्' नामक कन्नड़ व्याकरण संस्कृत सूत्रों में लिखा है। चार पाद तथा ५६२ सूत्र हैं । " इसी व्याकरण पर लेखक ने मञ्जरी - मकरन्द नामक विस्तृत टीका
१. श्री भारमल्लतनयो भुवि भोजराजो
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राज्यं प्रशास्ति रिपुवजत मिन्द्रवन्द्यः ।
तस्याज्ञया विनयसागर - पाठकेन
सत्यप्रबन्धरचिता सुतृतीयवृत्तिः । ग्रन्थ के हस्तलेख का अन्तिम पद्य ।