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संस्कृत व्याकरण का इतिहास
मानते हैं।' इसका भागिनेय वासवदत्ता-लेखक सुबन्धु था। इससे अधिक हम इसके विषय में कुछ नहीं जानते।
काल ___ भारतीय अनुश्रुति के अनुसार प्राचार्य वररुचि संवत्-प्रवर्तक महाराजा विक्रमादित्य का सभ्य था। कई ऐतिहासिक इस संबन्ध को काल्पनिक मानते हैं। अतः हम वररुचि के कालनिर्णयक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं
१-काशिका के प्राचीन कातन्त्रवृत्तिकार दुर्गसिंह के मतानुसार कातन्त्र व्याकरण का कृदन्त भाग वररुचि कात्यायन कृत है।' १. २-संवत् ६९५ वि० में शतपय का भाष्य लिखने वाले हरि
स्वामी का गुरु स्कन्दस्वामी निरुक्तटीका में वररुचि निरुक्तसमुच्चय से पर्याप्त सहायता लेता है, और उसके पाठ उद्धृत करता है।
३-स्कन्द महेश्वर की 'निरुक्तटीका' २०१६ के भामह के अलंकार ग्रन्थ का २२१७ श्लोक उद्धृत है। भामह ने वररुचि के . १५ 'प्राकृतप्रकाश' की 'प्राकृतमनोरमा' नाम्नी टोका लिखी है। अतः
वररुचि निश्चय ही संवत् ६०० वि० से पूर्ववर्ती है । पं० सदाशिव लक्ष्मीधर कात्रे के मतानुसार हरिस्वामी संवत् प्रवर्तक विक्रम का समकालिक है।
___ भारतीय इतिहास के प्रामाणिक विद्वान् श्री पं० भगवद्दत्त जी ने २० अपने 'भारतवर्ष का इतिहास' ग्रन्थ में वररुचि और विक्रम साह
साङ्क की समकालिकता में अनेक प्रमाण दिये हैं। उनमें से कछ एक नीचे लिखे हैं
१. पं० भगवद्दतजी कृत भारतवर्ष का इतिहास, पृ. ६ (द्वि सं०) । २. भारतवर्ष का बृहद् इतिहास भाग १, पृष्ठ ६८ (द्वि० सं०)। . ३. ६०-आगे पृष्ठ ४४५ पर काल-निर्देशक ८ वां प्रमाण ।
४. वृक्षादिवदमी रूढा न कृतिना कृताः कृतः । कात्यायनेन ते सृष्टा विबुद्धप्रतिपत्तये।
५. देखो-हमारे द्वारा सम्पादित 'निरुक्तसमुच्चय' की भूमिका पृष्ठ १ । ६. ग्वालियर से प्रकाशित 'विक्रमादित्य ग्रन्थ' में पं. सदाशिव कात्रे का
७. देखो-द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ३२७ तथा ३४१ ।
३० देख।