Book Title: Sanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Author(s): Yudhishthir Mimansak
Publisher: Yudhishthir Mimansak

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Page 715
________________ ६७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास · लिखा गया है । अतः उस काल में उक्त घटना का प्रत्यक्ष न होने से 'अवत' के स्थान पर 'ददाह' क्रिया का प्रयोग किया है । अमोघा वृत्ति में लङ् लकार का प्रयोग होने से विदित होता है कि पाल्य - कीर्ति अमोघवर्ष ( प्रथम ) के काल में वर्तमान था । इसका एक प्रमाण महाराज अमोघदेव के नाम पर स्वोपज्ञवृत्ति का 'अमोघ' नाम रखना भी है । सम्भव है पाल्यकीर्ति महाराज अमोघदेव का सभ्य रहा हो । महाराज अमोघदेव सं० ८७१ में सिंहासनारूढ़ हुए थे । उनका एक दानपत्र सं० ६२४ का उपलब्ध हुआ है । अतः यही समय पाल्य कीर्ति का भी है । तदनुसार निश्चय ही शाकटायन व्या१० करण और उनकी अमोघा वृत्ति की रचना सं० ८७१-९२४ के मध्य में हुई । ५ शाकटायन व्याकरण में इष्टियां पढ़ने की आवश्यकता नहीं है, १५ सूत्रों से पृथक् वक्तव्य कुछ नहीं है, उपसंख्यानों की भी आवश्यकता नहीं है । इन्द्र चन्द्र आदि ग्राचार्यों ने जो शब्दलक्षण कहा है वह सब इस में है । और जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है । गणपाठ धातुपाठ लिङ्गानुशासन और उणादि इन चार के अतिरिक्त समस्त व्याकरण कार्य इस वृत्ति के अन्तर्गत है । " " २० शाकटायन तन्त्र की विशेषता इस व्याकरण का टीकाकार यक्षवर्मा लिखता है - ३० इस व्याकरण में पात्यकीर्ति ने लिङ्ग और समासान्त प्रकरण को समास प्रकरण में और एकशेष को द्वन्द्व प्रकरण में पढ़कर व्याकरण की प्रक्रियानुसारी रचना का बीज वपन कर दिया था । उत्तर काल में इस ने परिवृद्ध होकर पाणिनीय व्याकरण पर भी ऐसा याबात किया कि समस्त पाणिनीय व्याकरण ग्रन्थकर्तृ क्रम की उपेक्षा करके २५ १. इष्टिर्तेष्टा न वक्तव्यं वक्तव्यं सूत्रतः पृथक् । संख्यातं नोपसंख्यानं यस्य शब्दानुशासने ॥६॥ इन्द्रश्चन्द्रादिभिः शाब्दैर्यदुक्तं शब्दलक्षणम् । तदिहास्ति समस्तं च यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ॥ १० ॥ गगवानयोगेन धातून् लिङ्गानुशासने लिङ्गगतम् । प्रौणादिकानुणादौ शेषं निश्शेषमत्र वृत्तौ विद्यात् ॥ ११ ॥ २. कटान अमोघावृत्ति की प्रस्तावना में डा० आर बिरवे ने भी शाकटायन व्याकरणको प्रक्रियानुसारी माना है ( द्र० सन्दर्भ सं० २५) ।

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