Book Title: Sanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Author(s): Yudhishthir Mimansak
Publisher: Yudhishthir Mimansak

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Page 752
________________ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७१५ हैं । ग्रन्थकार का नाम अज्ञात है । इसने सम्पूर्ण सिद्धान्तचन्द्रिका की टीका की वा उणादि भाग की ही, यह अज्ञात है । इस का विशेष वर्णन हम 'उणादिसूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता' नामक २४वें अध्याय में करेंगे । ३ - जिनेन्द्र वा जिनरत्न जिनेन्द्र वा जिनरत्न ने सिद्धान्तरत्न टीका लिखी है । यह बहुत अर्वाचीन है । निबन्ध-ग्रन्थ डा० बेल्वाल्कर ने सारस्वत - प्रकरण के अन्त में निम्न ग्रन्थकारों के ग्रन्थों का और निर्देश किया है - १० १ - हर्षकीर्तिकृत तरङ्गिणी - यह चन्द्रकीर्ति का शिष्य था । हर्षकीर्ति ने सं० १७१७ में तरङ्गिणी लिखी है । सम्भवतः यह हर्षकीर्ति विरचित सारस्वत धातुपाठ की 'धातुतरङ्गिणी' नामक व्याख्या हो चन्द्रकीर्ति सूरि का काल सं० १६०० के लगभग है । अतः उस के शिष्य हर्षकीर्ति द्वारा सं० १७१७ में तरङ्गिणी लिखना १५ सम्भवः नहीं । सम्भवतः डा० वेल्वाल्कर ने किसी हस्तलेख पर सं० १७१७ का उल्लेख देख कर ही उसे ग्रन्थरचना का काल समझ लिया होगा । २ - ज्ञानतीर्थ - इसने कृत तद्धित और उणादि के उदाहरण दिए हैं । इसका एक हस्तलेख सं० १७०४ का मिला है । ३ - माध्व - इसने सारस्वत के शब्दों के विषय में एक ग्रन्थ लिखा है, सम्भवतः सं० ० १६८० में 1 डा० बेल्वाल्कर की भूल - डाक्टर बेल्वाल्कर ने इसी प्रकरण में लिखा है कि सारस्वत के उणादि परिभाषापाठ और धातुपाठ पर टीकाएं नहीं है । यह लेख चिन्त्य है । परिभाषाठ के अतिरिक्त धातुपाठ और उणादिपाठ की टीकाओं का वर्णन हम द्वितीय भाग में यथास्थान करेंगे । २५ 1 २० १६. वोपदेव (सं० १२८७ - १३५० वि० ) वोपदेव ने 'मुग्धबोध' नाम के लघु व्याकरण की रचना की थी । ३०

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