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संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
३- अज्ञातकर्तृक
भण्डारकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान पूना के व्याकरण विभागीय सन् १९३८ के सूचीपत्र में सं० ६०, पृष्ठ ९४-९५ पर 'रूपावतार' की एक अज्ञातक' क टीका निर्दिष्ट है। इसमें शंकर कृत नौवि टोका का खण्डन मिलता है । अत: यह उससे परभावी, है, इतना स्पष्ट है ।
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४- श्रज्ञातनामा
मद्रास राजकीय पुस्तकालय के सन् १९३७ के छपे हुए सूचीपत्र पृष्ठ १०३६८ पर 'रूपावतार' के व्याख्याग्रन्थ का उल्लेख है । इसका ग्रन्थाङ्क १५९१३ है । यह ग्रन्थ अपूर्ण है । यह बड़े आकार के ५२४ १० पृष्ठों पर लिखा हुआ है । ग्रन्थकार का नाम अज्ञात है अत एव उसके काका निर्णय भी दुष्कर है ।
२. प्रक्रियारत्नकार (सं० १३०० वि० से पूर्व )
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सायण ने अपनी धातुवृत्ति में 'प्रक्रियारत्न' नामक ग्रन्थ को बहुधा उद्धृत किया है ।' उन उद्धरणों को देखने से विदित होता है कि यह पाणिनीय सूत्रों पर प्रक्रियानुसारी व्याख्यान- ग्रन्थ है । 'दैवम्' की कृष्ण लीलाशुक मुनि विरचित पुरुषकार व्याख्या में भी 'प्रक्रियारत्न' उद्धृत है ।'
ग्रन्थकार का नाम और देश काल आदि अज्ञात है । 'पुरुषकार ' २० में उद्धृत होने से इतना निश्चित है कि यह ग्रन्थकार सं० १३०० से पूर्वभावी हैं । कृष्ण लीलाशुक मुनि का काल विक्रम संवत् १२५०१३५० के मध्य है ।
कृष्ण लीलाशुक मुनि ने प्रक्रियारत्न को जिस ढंग से स्मरण किया है, उससे हमें सन्देह होता हैं कि इसका लेखक कृष्ण लीलाशुक २५ मुनि है ।
१. धातुवृत्ति, काशी संस्करण, पृष्ठ ३१, ४१६ इत्यादि ।
२. प्रपञ्चितं चैतत् प्रक्रियारत्ने । पृष्ठ ११० । हमारा संस्करण पृष्ठ १०२ । ३. द्र० – दैव पुरुषकार का हमारा उपोद्घात पृष्ठ ६ ।