________________
१०
आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण - ६५६ । ही पूज्यपादविरचित है। उन्होंने इस विषय में जो हेतु दिये हैं, उनमें मुख्य हेतु इस प्रकार हैं___ तत्त्वार्थसूत्र ११६ की स्वविरचित सर्वार्थसिद्धि' नाम्नी व्याख्या में पूज्यपाद ने लिखा है कि प्रमाणनयरधिगमः' सूत्र में अल्पान्तर होने से नय शब्द का पूर्व प्रयोग होना चाहिये, परन्तु अहित होने से ५ बह्वच प्रमाण शब्द का पूर्व प्रयोग किया है। जैनेन्द्र व्याकरण के
औदीच्य संस्करण में इस प्रकार का कोई लक्षण नहीं है, जिससे बह्वच् प्रमाण शब्द का पूर्व निपात हो सके । दाक्षिणात्य संस्करण में इस अर्थ का प्रातिपादक 'अय॑म्" सूत्र उपलब्ध होता है। अतः दाक्षिणात्य संस्करण ही पूज्यपाद विरचित है।' - पं० श्रीलालजी का यह लेख प्रमाणशून्य है । यदि दाक्षिणात्य संस्करण ही पूज्यपादविरचित होता, तो वे 'अभ्यहितत्वात्' ऐसा न लिखकर 'अय॑त्वात्' लिखते । पूज्यपाद का यह लेख ही बता रहा है कि उनकी दृष्टि में 'अय॑म्' सूत्र नहीं है। उन्होंने पाणिनीय व्याकरण के 'अभ्यहितं च' वार्तिक को दृष्टि में रखकर 'अभ्यहितत्वात्' १५ लिखा है । सर्वार्थसिद्धि में अन्यत्र भी कई स्थानों में अन्य वैयाकरणों । के लक्षण उद्धृत किये हैं । यथा
१-तत्त्वार्थसूत्र ५।४ की सर्वार्थसिद्धि टीका में नित्य शब्द के निर्वचन में 'नेध्रुवे त्यः' वचन उद्धृत किया है। यह 'त्यब् नेवे वक्तव्यम्' इस कात्यायन वार्तिक का अनुवाद है। जैनेन्द्र व्याकरण २० में इस प्रकरण में 'त्य' प्रत्यय ही नहीं है। इसलिये अभयनन्दी ने 'ड्ये स्तुट च" सूत्र की व्याख्या में 'नेबुवः' उपसंख्यान करके नित्य शब्द की सिद्धि दर्शाई है। दाक्षिणात्य संस्करण में नित्य शब्द की व्युत्पति ही उपलब्ध नहीं होती। ___तत्त्वार्थसूत्र ४।२२ की सर्वार्थसिद्धिटीका में 'Qतायां तपरकरणे २५ मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानम्' वचन पढ़ा है । यह पाणिनि के 'तपरस्तत्कालस्य सूत्र पर कात्यायन का वात्तिक है।
अतः दाक्षिणात्य संस्करण में केवल 'अभ्यहितं च' के समानार्थक १ शब्दागवन्द्रिका १।३।१५॥ २. शब्दार्णवचन्द्रिका की भूमिका । ३. वात्तिक ४ । २ । १०४ ॥ ४.३ । २ । ८१ ॥ ५. अष्टा० ११११७०॥