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आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण
दुर्गासोऽथ दुर्गात्मा दुर्गा दुर्गप इत्यपि । यस्य नामानि तेनैव लिङ्गवृत्तिरियं कृता
दुर्गसिंह का काल
दुर्गसिंह के काल पर साक्षात् प्रकाश डालनेवाली कुछ भी सामग्री उपलब्ध नहीं होती । श्रतः काशकुशावलम्ब न्याय से दुर्गसिंह के काल निर्धारण का प्रयत्न करते हैं
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१ - कातन्त्र के 'इन् यजादेरुभयम्' ( ३ । ५ । ४५) सूत्र की वृत्ति में दुर्गसिंह ने निम्न पद्यांश उद्धृत किये हैं
'तव दर्शनं किन्न धत्ते । कमलवनोद्घाटनं कुर्वते ये । तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यशः ।'
इनके विषय में टीकाकार लिखता है
'महाकविनिबन्धाश्च प्रयोगा दृश्यन्ते । यदाह भारविः तव दर्शनं किन्न धत्त इति .... तथा मयूरोऽपि - कमलवनोद्घाटनं कुर्वते ये [ सूर्यशतक २] इति । तथा च किरातकाव्ये- तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यश: ( १ । ८ ) इति ।'
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि दुर्गसिंह भारवि और मयूर से उत्तरवर्ती है ।
זי
१. कातन्त्र परिशिष्ट पृष्ठ ५२२ । ३. देखो पूर्व पृष्ठ ४९१ ।
१०
हम पूर्व लिख चुके हैं कि कोंकण के महाराज दुर्विनीत ने भारविविरचित किरात के १५ वें सर्ग पर टीका लिखी थी। दुर्विनीत का राज्यकाल वि० सं० ५३६ - ५६६ तक माना जाता है । अतः २० भारवि का काल विक्रम की षष्ठी शताब्दी का पूर्वार्द्ध है | महाकवि मयूर महाराज हर्षवर्धन का सभा पण्डित था । हर्षवर्धन का राज्यकाल सं० ६६३-७०५ तक है। यह दुर्गसिंह की पूर्वसीमा है ।
50.
२ – काशिकावृत्ति ७ । ४ । ε३ में लिखा है
१५
'अत्र केचिद् शब्दं लघुमाश्रित्य सन्वद्भावमिच्छन्ति । सर्वत्रैव २५ घोरानन्तर्यमभ्यासेन नास्तीति कृत्वा व्यवधानेऽपि वचनप्रमाण्याद् भवितव्यम् । तदसत्
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२. देखो - पूर्व पृष्ठ ४६८