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सोलहवां अध्याय पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार पाणिनीय व्याकरण के अनन्तर कातन्त्र प्रादि अनेक लघु व्याकरण प्रक्रियाक्रमानुसार लिखे गये। इन व्याकरणों की प्रक्रियानुसार ५ रचना होने से इनमें यह विशेषता है कि छात्र इन ग्रन्थों का जितना
भाग अध्ययन करके छोड़ देता है, उसे उतने विषय का ज्ञान हो जाता है। पाणिनीय अष्टाध्यायी आदि शब्दानुशासनों के सम्पूर्ण ग्रन्थ का जब तक अध्ययन न हो, तब तक किसी एक विषय का भी ज्ञान नहीं
होता, क्योंकि इनमें प्रक्रियानुसार प्रकरण-रचना नहीं है। यथा १० अष्टाध्यायो में समास-प्रकरण द्वितीय अध्याय में है, परन्तु समासान्त
प्रत्यय पञ्चमाध्याय में लिखे हैं । समास में पूर्वोत्तर पद को निमित मान कर होनेवाले कार्य का विधान षष्ठाध्याय के तृतीयपाद में किया है। कुछ कार्य प्रथमाध्याय के द्वितीय पाद और कुछ द्वितीयाध्याय के
चतुर्थ पाद में पढ़ा है । इस प्रकार समास से सम्बन्ध रखनेवाले कार्य १५ अनेक स्थानों में बंटे हुए हैं । अतः छात्र जब तक अष्टाध्यायी के न्यून
से न्यून छ: अध्याय न पढ़ले, तब तक उसे समास विषय का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए जब अल्पमेधस और लाघवप्रिय व्यक्ति पाणिनीय व्याकरण छोड़कर कातन्त्र प्रादि प्रक्रियानुसारी ध्याकरणों का अध्ययन करने लगे, तब पाणिनीय वंयाकरणों ने भी उसकी रक्षाके लिए अष्टाध्यायी की प्रक्रियाक्रम से पठन-पाठन की नई प्रणाली का आविष्कार किया । विक्रम की १६ वों शताब्दी के अनन्तर पाणिनीय व्याकरण का समस्त पठन-पाठन प्रक्रियाग्रन्थानुसार होने लगा। इस कारण सूत्रपाठक्रमानुसारी पठन-पाठन शन. शनेः उच्छिन्न हो गया।
दोनों प्रणालियों से अध्ययन में गौरव लाघव यह सर्वसम्मत नियम है किसी भी ग्रन्थ का अध्ययन यदि ग्रन्थकर्ता-विरचित क्रम से किया जावे, तो उसमें अत्यन्त सरलता होती है । इसी नियम के अनुसार सिद्धान्तकौमुदी आदि व्युत्क्रम ग्रन्थों की