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५०८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
२. नास्ति विरोधः, भिन्नकर्तृत्वात् । इदं हि जयादित्यवचनम्, तत्पुनर्वामिनस्य । वामनवृत्तौ (३३१।३३) तासिसिचोरिकार उच्चारणार्थो नानुबन्धः पठ्यते।
न्यासकार ने इस उद्धरण में अष्टाध्यायी ३॥१॥३३ की वामनवृत्ति ५ का पाठ उद्धृत किया है। ध्यान रहे तृतीयाध्याय का न्यास जयादित्यवृत्ति पर है।
आगे पुनः लिखता है३. अनित्यत्वं तु प्रतिपादयिष्यते (प्र. ६।४।२२) जयादित्येन ।'
४. न्यासकार ३।११७८ पर भी जयादित्य विरचित ६।४।२३ की १० वृत्ति उद्धृत करता है। ____ इन से व्यक्त होता है कि जयादित्य को वृत्ति षष्ठाध्याय पर भी थी।
५. हरदत्तविरचित पदमञ्जरी ६।१।१३ (पृष्ठ ४२८) से विदित होता. है कि वामन ने चतुर्थ अध्याय पर वृत्ति लिखी थी।
न्यासकार और हरदत्त के उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि जयादित्य और वामन दोनों ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर पृथक-पृथक् वृत्तियां रची थी, और न्यासकार तथा हरदत्त के काल तक वे सुप्राण्य थीं।
जयादित्य और वामन की वृत्तियों का सम्मिश्रण हम पूर्व लिख चुके हैं कि वर्तमान में काशिका का जो संस्करण मिलता है, उसमें प्रथम पांच अध्याय जयादित्य विरचित हैं, और अन्तिम तीन अध्याय वामनकृत । जिनेन्द्रबुद्धि ने अपनी न्यासव्याख्या दोनों की सम्मिलित वृत्ति पर रची है। दोनों वृत्तियों का सम्मिश्रण
क्यों और कब हुआ, यह अज्ञात है। 'भाषावृत्ति' आदि में 'भागवृत्ति' २५ के जो उद्धरण उपलब्ध होते हैं, उन में जयादित्य और वामन की
२. न्यास ३।१।३३ पृष्ठ ५२४ । २. न्यास ३॥१॥३३॥ पृष्ठ ५२४ ।