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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
ने वैयासकि पद का सम्बन्ध व्यास से जोड़ कर 'अकङ' का विधान किया, उसी प्रकार वैहीनरि का भी वहीनर से सम्बन्ध व्यक्त करके इत्त्व का विधान किया है। परन्तु जैसे पतञ्जलि ने वैयासकि की
मूल प्रकृति व्यासक बताई, उसी प्रकार कुणरवाडव ने भी वहीनरि ५ की मूल प्रकृति विहीनर की ओर संकेत किया।
___ इस विवेचना से स्पष्ट है कि उक्त वार्तिक के प्रमाण से वात्तिककार कात्यायन और कुणरवाडव दोनों उदयनपुत्र वहीनर से अर्वानहीं हो सकते । कथासरित्सागर आदि में उल्लिखित श्रतधर कात्यायन वात्तिककार कात्यायन से भिन्न व्यक्ति है।
- वार्तिक पाठ कात्यायन का वात्तिकपाठ पागिनोय व्याकरण का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। इस के विना पाणिनीय व्याकरण अधूरा रहता है । पतञ्जलि ने कात्यायनीय वात्तिकों के आधार पर अपना महा
भाष्य रचा है। कात्यायन का वात्तिक-पाठ स्वतन्त्ररूप में सम्प्रति १५ उपलब्ध नहीं होता । महाभाष्य से भी कात्यायन के वतिकों की
निश्चित संख्या प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि उस में बहत्र अन्य वातिककारों के वचन भी संग्रहीत हैं। महाभाष्यकार ने ४-५ को छोड़कर किसी के नाम का निर्देश नहीं किया।
प्रयम वातिक–आधुनिक वैयाकरण 'सिद्ध शब्दार्थसम्बन्धे" २० को कात्यायन का प्रथम वातिक समझते हैं, यह उनकी भूल है । इस
भूल का कारण भी वही है, जो हमने पृष्ठ २३० पर पाणिनीय आदिम सूत्र के सम्बन्ध में दर्शाया है। महाभाष्य में लिखा है___ माङ्गलिक प्राचार्यो महतः शास्त्रौघस्य मङ्गलार्थ सिद्धशब्द
मादितः प्रयुङ्क्ते । २५ हमारा विचार है यहां भो 'प्रादि' पद मुख्यार्थ का वाचक नहीं
है। कात्यायन का प्रथम वार्तिक 'रक्षोहागमलध्वसन्देहा: प्रयोजनम् है। इसमें निम्न प्रमाण हैं
१. महाभाष्य 'अथ शब्दा०' भाग १, पृष्ठ ६ । २. द्र० पूर्व पृष्ठ ३१७ ।
३. महाभाष्य 'अथ शब्दा०' भाग १, पृष्ठ ६, ७ । २० ४. महाभाष्य 'अथ शब्दा०' भाग १, पृष्ठ १।