________________
संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास
२- अष्टाध्याय ५ । १ । ५० की दो प्रकार से व्याख्या करके जयादित्य लिखता है |
२०
'सूत्रार्थद्वयमपि चेतदाचार्येण शिष्याः प्रतिपादिताः । तदुभयमपि ग्राह्यम्' ।
अर्थात् - प्राचार्य ( पाणिनि ) ने सूत्र के दोनों ग्रंथ शिष्यों को बताए, इसलिये दोनों अर्थ प्रमाण हैं ।
ऐसी ही दो प्रकार की व्याख्या जयादित्य ने ५ । १ । ६४ की भी की है ।'
३ – महाभाष्य ६ । १ । ४५ में पतञ्जलि ने लिखा है'यत्ताह मीनातिमोनोतिदोङां ल्यपि चेत्यंत्र राज्ग्रहणमनुवर्तयति ।' यहाँ धेनुवर्तयति ( अनुवृत्ति लाता है) क्रिया का कर्त्ता पाणिनि के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता ।
४ - महाभाष्य ३ । १ । ६४ में लिखा है
'ननु च य एवं तस्य समयस्य कर्त्ता स एवेदमप्याह । यद्यसौ तत्र १५ प्रमाणमिहापि प्रमाणं भवितुमर्हति । प्रमाणं चासौ तत्र चेह च ।'
अर्थात् - 'न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या न च केवलः प्रत्यय:" इस नियम का जो कर्ता हैं, वहीं 'वासरूपोऽस्त्रियाम् " सूत्र का भी रचयिता है। यदि वह नियम में प्रमाण हैं, तो सूत्र के विषय में भी प्रमाण होगा। वह उस में भी प्रमाण हैं, और इस में भी ।
यह नियमन पाणिनि के सूत्रपाठ में उपलब्ध होता है, और न खिलपाठ में । भाष्यकार के वचन से स्पष्ट हैं कि इस नियम का कर्त्ता
१. ऐसी दो-दो प्रकार की व्याख्या श्वेतवनवासी ने पञ्चपादी उणादि में कतिपय सूत्रों की की है, द्रष्टव्य - ४११५, ११७, १२० | श्वेतवनवासी ने इन सूत्रों की द्वितीय व्याख्या दशपादीवृत्ति के आधार पर की है । द्र० – दश२५ पादीवृत्ति १० १६, १७; ८।१४।।
२. शबरस्वामी ने मीमांसा ३।४।१३ के भाष्य में 'प्रकृतिप्रत्ययो सहार्थ ब्रूतः' वचन प्राचार्योपदेश कहा है इसी प्रसंग में सूत्रकार का भी निर्देश है । अतः उसके मत में यह प्राचार्य पाणिनि से भिन्न है ।
३०
३. अष्टा० ३।१।६४ ।