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महाभाष्यकार पतञ्जलि
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प्रस्य च्वौ-अव्ययप्रतिषेधश्चोद्यते, दोषाभूतमहर्दिवाभूता रात्रिरित्येवमर्थम् । स इहापि प्राप्नोति-उपकुम्भीभूतम्, उपमणिकीभूतम् । ___ महाभाष्यकार ने 'प्रस्य च्वौ' सूत्र के विषय में 'अव्ययप्रतिषेधश्चोद्यते' लिखा है । सम्प्रति महाभाष्य में 'अस्य च्वौ' सूत्र का भाष्य उपलब्ध नहीं होता। सम्पूर्ण महाभाष्य में कहीं अन्यत्र भी 'अस्य ५ च्वौ' के विषय में 'अव्ययप्रतिषेधः' का विधान नहीं । अतः स्पष्ट है कि महाभाष्य में 'प्रस्य च्वौ' सूत्र-सम्बन्धी भाष्य नष्ट हो गया है।
२-महाभाष्य ४ । २।६० के अन्त में निम्न कारिका उद्घृत है
अनुसूर्लक्ष्यलक्षणे सर्वसाद्विगोश्च लः ।
इकन पदोत्तरपदात् शतषष्टे: षिकन् पथः ॥ महाभाष्य में इस कारिका के केवल द्वितीय चरण की व्याख्या उपलब्ध होती है। इससे प्रतीत होता है कि कभी महाभाष्य में शेष तीन चरणों की व्याख्या भी अवश्य रही होगी, जो इस समय अनुपलब्ध है।
३-पतञ्जलि ने 'कृन्मेजन्तः" सूत्र के भाष्य में 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य' परिभाषा के कुछ दोष गिनाये हैं। कैयट इस सूत्र के प्रदीप के अन्त में उन दोषों का समाधान दर्शाता हुआ सब से प्रथम 'कष्टाय' पद में दीर्घत्व की प्राप्ति का समाधान करता है। महाभाष्य में पूर्वोक्त परिभाषा के दोष-परिगणन प्रसंग में 'कष्टाय २० पदसम्बन्धी दीर्घत्व की अप्राप्ति' दोष का निर्देश उपलब्ध नहीं होता। अतः नागेश लिखता है___ कष्टायेति यादेशो दीर्घत्वस्येति ग्रन्थो भाष्यपुस्तकेषु भ्रष्टोऽतो न दोषः ।
अर्थात्-दोष-निदर्शन प्रसंग में 'कष्टायेति यादेशो दीर्घत्वस्य' २५ इत्यादि पाठ भाष्य में खण्डित हो गया है। अतः कैयट का दोष- परिहार करना प्रयुक्त नहीं। • ४-कैयट ८।४।४७ के महाभष्य-प्रदीप में लिखता है
'नायं प्रसज्यप्रतिषेधः' इति पाठोऽयं लेखकप्रमादान्नष्टः ।
१. अष्टा० ११॥३६॥