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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जोड़ दिया, तो सारा पाठ यथावत् मिल गया। हमने अपनी प्रतिलिपि में फोटो प्रति की संख्या भी डाल रखी है। कोई भी व्यक्ति आकर देख सकता है । फोटो प्रति की पृष्ठ-सख्या में अशुद्ध होने का कारण अति साधारण है । हस्तलिखित ग्रन्थों में पत्रे के एक ओर ही संख्या रहती है, दूसरे भाग पर संख्या नहीं होती। अत: संख्यारहित भागों को फोटो कापी करने वा क्रमशः रखने में ये पृष्ठ आगेपीछे हो गये। यह साधारण सी भूल भी वर्मा जी नहीं समझ पाये । इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि उन्होंने कभी किसी ग्रन्थ का हस्तलेखों के आधार पर सम्पादन कार्य नहीं किया ।' । ४. उद्धरण संख्या ५ का हाशिया पर लिखा पाठ हमारे हस्तलेख में विद्यमान है। अतः स्पष्ट है कि हमारी प्रतिलिपि यथावत है। हां, हमारी प्रतिलिपि में 'भाष्यटीका ग्रन्थ ६ हजार साठि' इतना ही है । 'महा' पद वर्मा जी का बढ़ाया हुअा प्रतोत होता है।
. ५. उद्धरण संख्या ५ में हाशिए पर लिखे 'भाष्यटीका ग्रन्य ६ १५ हजार साठि' का अभिप्राय वर्मा जी की समझ में नहीं आया । अतः वें
उद्धरण सं० ६ में 'ग्रन्थ' शब्द का क्या अर्थ है..."मीमांसक जी....." छोड़ते हैं, लिख कर बात को टालना चाहते हैं । स्पष्ट है वर्मा जी को ग्रन्थ-परिमाण-बोधक प्राचीन परिपाटी का ज्ञान नहीं है इस का
सीधा-साधा अर्थ है--भाष्यटोका का परिमाण ६०६० श्लोक है। हम २० ने अपनी गणना के अनुसार उपलब्ध भाष्यटीका का परिमाण ५७००
श्लोक बताया है। उससे यह संस्था अत्यधिक मेल खाती है किसी भी गद्यग्रन्थ के अक्षरों को गणना करके उसमें अनुष्टुप् के ३२ अक्षरसंख्या का भाग देकर प्रत्यारिमाण बताने को प्राचीन परिसाटों है ।।
६, सांतवां उद्धरण बता रहा है कि वर्मा जी ने कभी हस्त लेखों २५ पर कार्य नहीं किया, अन्यथा उन्हें पता होता कि हस्तलेखों के पत्रों
के हाशिए पर तथा अन्त में (कहीं-कहीं मध्य में भो) 'राम' शब्द
१. पंजाब विश्वविद्यालय के प्रिंसिपल वूलहर कहा करते थे कि जिसने छोटा शोधकार्य (लोवर रिसर्च = अन्य सम्पादन) नहीं किया वह बड़ा
शोधकार्य, (हाई रिसर्च) नहीं कर सकता। इसलिये उन्होंने अपने समस्त ३. डीलिट (उस समय पी एच० डी० नहीं थी) के छात्रों से ग्रन्थ सम्पादन ही.
करवाया था।