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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
काठक संo - पुनरुत्स्यूतं वासो देयम्, पुनरुत्सृष्टोऽमड्वान्, पुन
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निष्कृतो रथः । ८|१५||
मंत्रायणी संo - पुनरुत्स्यूतं वासो देयम्, पुनर्णवो रथः, पुनरुत्सृष्टो नड्वान् | १|७|२||
तैत्तिरीय सं० - पुनर्निष्कृतो रथो दक्षिणा, पुनरुत्स्यूतं वासः । १ ।
५.२।।
कैयट महाभाष्य में उद्धृत उद्धरण को काठक संहिता का वचन मानता है वह लिखता है - काठकेऽन्तोदात्तः पठ्यते, तदभिप्रायेण पुनः शब्दस्य गतित्वाभावादिदमुदाहरणम् । संप्रति काठक संहिता में १० ब्राह्मण भाग पर स्वरचिह्न उपलब्ध नहीं होते । मैत्रायणो और तैत्तिरीय संहिता में भी अन्तोदात्तत्व देखा जाता है, पुनरपि श्रानुपूर्वी काठकसंहिता से अधिक साम्यता रखती है ।
२२५ - श्राम्बानां चरुः, नाम्बानां चरुरिति
( ख ) - महाभाष्य प्राप्ते । तुलना करो -
काठक सं० - श्राम्बानां चरुः १५|५|| तैत्तिरीय सं० - श्राम्बानां चरुम् | १|८|१०|| मैत्रायणी सं० - नाम्बानां चरुम् । २२६|६||
( ग ) महाभाष्य २२४१८१ – चक्षुष्कामं याजयांचकार
पाठ
"
उदधृत किया है । यह पाठ उपलब्ध वैदिक वाङ् मय में केवल काठक - २० संहिता ११।१ में मिलता है ।
(घ) महाभाष्य १।१।१०--परश्शतानि कार्याणि । तुलना करो -- काठक सं० -- परशतानि कार्याणि | ३६ | ६ || मैत्रायणी सं० --- परःशतानि कार्याणि । १।१०1१२ ॥
इस तुलना से स्पष्ट है कि महाभाष्यकार काठक शाखा के पाठ २५ का प्राथमिकता देते हैं । इतना ही नहीं, महाभाष्य ४।१।१०१ में लिखते हैं-- ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते। यहां काठक संहिता का विशेष निर्देश किया है । इस से स्पष्ट विदित होता है कि पतञ्जलि का काठक शाखा के साथ कोई विशिष्ट संबन्ध था । काठक शाखा चरक चरणान्तर्गत है । अतः इसके अध्येता चरक अथवा चरकाध्वर्यु कहे जाते हैं ।
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काठक संहिता प्राचीन काल में कश्मीर देश में प्रचलित थी