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आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय
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स्फोटायन (६।१।१२३) । इन का वर्णन हम इस ग्रन्थ के चौथे अध्याय में कर चुके हैं । इन के अतिरिक्त 'प्राचार्याणाम् (७३।४६), उदीचाम् (४।१।१५३), ऐकेषाम् (८।३।१०४), प्राचाम् (४।१।१७) पदों द्वारा अनेक प्राचीन वैयाकरणों का निर्देश किया है । कात्यायन ने 'चयो द्वितीया शरि पौष्करसादेः' वार्तिक में पौष्करसादि प्राचार्य ५ का मत उद्धृत किया है। पौष्करसादि के पिता पुष्करसत् का उल्लेख गणपाठ २।४।६३; ४११६१; ७।३।२० में तीन स्थानों पर मिलता है। पौष्करसादि पद भी तौल्वल्यादिगण में पढ़ा है । 'न तौल्वलिभ्यः सूत्र से युव प्रत्यय के लोप का निषेध किया है। इससे व्यक्त है कि पाणिनि पौष्करसादि के पुत्र पौष्करसादायन से भी परिचित था। १० अतः पौष्करसादि प्राचार्य पाणिनि से निश्चय ही पूर्ववर्ती है । वृत्तिकार जयादित्य ने ४।३।११५ में काशकृत्स्न व्याकरण का उल्लेख किया है। पतञ्जलि ने 'काशकृत्स्नी मीमांसा' का निर्देश महाभाष्य में कई स्थानों पर किया है। काशकृत्स्न के पिता कशकृत्स्न का नाम उपकादिगण तथा काशकृत्स्न का नाम अरीहणादिगण' में १५ मिलता है। काशिकाकार ने ४।२।६५ में काशकृत्स्न व्याकरण का परिमाण तीन अध्याय लिखा है। यही परिमाण जैन शाकटायन व्याकरण की अमोधा वत्ति में दर्शाया है। काशिका ४ । २ । ६५ में दश अध्यायात्नक वैयाघ्रपदीय व्याकरण का उल्लेख है।
इनके अतिरिक्त 'शिव, बृहस्पति, इन्द्र, वायु, भरद्वाज, चारायण, २० शन्तन, माध्यन्दिनि, रौढि, शौनकि, गौतम और व्याडि के व्याकरण पाणिनि से प्राचीन हैं। इन सब वैयाकरणों के विषय में हमने इस ग्रन्थ के तृतीय अध्याय में विस्तार से लिखा है।
प्रातिशाख्य-प्रातिशाख्य वैदिक चरणों के व्याकरण ग्रन्थ हैं।
१. महाभाष्य ८।४।४८ ॥ २. अष्टा० २।४।६१॥
३. काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् । र ४. महाभाष्य ४।१।१४, ६३॥ ४॥३॥१५॥ ५. अष्टा० २।४।६६॥ पृ० १२१, टि० ३ द्र०। ६. अष्टा० ४।२।६५॥ ७. त्रिका: काशकृत्स्नाः । काशिका ५॥११५८ में त्रिकं काशकृत्स्नम् ।
८. त्रिकं काशकृत्स्नीयम् । ३।२।१६२।। 'काशकृत्स्न व्याकरण और उस . १० के उपलब्ध सूत्र' निबन्ध देखें । ९. व्याकरणप्रधानत्वात् प्रातिशाख्यस्य । त० प्रा० वैदिकाभरण टीका, पृष्ठ ५२५ ।