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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन
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(ख) 'पणिन्' नकारान्त का पर्याय 'पणिन' अकारान्त स्वतन्त्र शब्द हैं । उस से प्रत इञ् (४।१।९५) के नियम से 'इञ्' होकर पाणिनि शब्द उपपन्न होता है।' पाणिनि के लिए प्रयुक्त 'पणिपुत्र' शब्द भो इसी का ज्ञापक है कि पाणिनि 'पणिन्' (नकारान्त) का का अपत्य है, 'पाणिन' का नहीं । 'पणिन्' नकारान्त से भी बह्वादि ५ (४।१।६६) प्राकृतिगणत्व से इञ् प्रत्यय सम्भव है।
हमारे विचार में द्वितीय मत अधिक युक्त है। क्योंकि प्रकरणों में पाणिन और पाणिनि दोनों ही नाम गोत्ररूप में स्मृत हैं ।' प्रथम पक्ष मानने पर 'पाणिन' गोत्र होगा और 'पाणिनि' युवा । यदि ऐसा होता तो युवप्रत्ययान्त 'पाणिनि' का गोत्ररूप से उल्लेख १० न होता। ___ यदि 'पाणिन' 'पाणिनि' को क्रमशः गोत्र और युव प्रत्ययान्त माने तब भी प्राचीन व्यवहार के अनुसार माता पिता के जीवित रहते हुए युव प्रत्ययान्त नामों से व्यवहृत होते हैं, किन्तु उन के स्वर्गवास के पश्चात् गोत्र प्रत्ययान्त का ही प्रयोग होता है । यही प्रमुख १५ कारण है कि एक व्यक्ति के युव-गोत्र प्रत्ययान्त दो-दो नाम प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । यथा-कात्यायन कात्य ।
३. पाणिनेय-इस का प्रयोग श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा के याजुष पाठ में ही उपलब्ध होता है, और वह भी पाठान्तर रूप में। इस शिक्षा की शिक्षाप्रकाश नाम्नी टीका में लिखा है--
२० पाणिनेय इति पाठे शुभ्रादित्वं कल्प्यम् । अर्थात्--पाणिनेय प्रयोग की सिद्धि शुभ्रादिभ्यश्च (४।१।१२३) सूत्र निर्दिष्ट गण को प्राकृतिगण मानकर करनी चाहिए। . ४. पणिपुत्र-इस का प्रयोग यशस्तिलक चम्पू में मिलता है ।
१. पणिनः मुनिः । पाणिनिः पणिनः पुत्रः। काशकृत्स्न धातुव्याख्यान २५ ११२०६ । तथा यही ग्रन्थ ११४८०॥ दोनों स्थानों पर प्रकारान्त पाठ अशुद्ध . प्रतीत होता है। २. इस पर विशेष विचार अनुपद ही किया जायगा ।
३. द्र०-चकारोऽनुक्तसमुच्चायार्थ प्राकृतिगणतामस्य बोधयति—गाङ्गेयः . पाण्डवेय इत्येवमादि सिद्धं भवति । काशिका ४।१।१२३॥