Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 28
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैसा है और किया जाता है। इस परोहित अभिचार मनाली यह भिन्नस्वरूप विचार ना ऋग्वेद और अथर्ववेद में चार वर्णो का नामोल्लेख है परंतु अथर्ववेद में ब्राह्मण का श्रेष्ठत्व (जो ऋग्वेद में नहीं मिलता) बताया गया है। अथर्ववेद में ब्राह्मण को "भूदेव" माना गया है और उसे पौरोहित्य का अधिकार है। ऋग्वेद में जिन देवताओं का स्वरूप प्राकृतिक दृश्यों सा है, उनका दर्शन अथर्ववेद में आसुरी और विनाशक स्वरूप में होता है। इस प्रकार के कुछ प्रमाणों के आधार पर अथर्ववेद का उत्तरकालीनत्व सिद्ध किया जाता है परंतु ऋग्वेद में अथर्वा का निर्देश देख कर दोनों वेदों के समकालीनत्व का भी तर्क किया जाता हैं। तथापि ऋग्वेदीय देवताओं का स्वरूप प्राकृतिक शक्ति जैसा है और ऋषियों द्वारा उनकी भक्तिपूर्ण स्तुति की जाती है। वे देवता मानवों की इच्छापूर्ति करते हैं, इसलिए उन्हें बलिभाग अर्पण कर प्रसन्न किया जाता है। इसके विरुद्ध अथर्ववेद में उन देवताओं का पैशाचिक स्वरूप और मानवों पर आपत्ति लाने की उनकी वृत्ति देख कर, आभिचारिक पुरोहित अभिचार मंत्रों के प्रयोग से उन्हें दूर हटाने का और क्वचित् प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है। समकालीन मानी गई संहिताओं में दिखनेवाली यह भिन्नस्वरूप विचारधारा चिन्तनीय है। ___4 यजुर्वेद संहिता यज्ञविधि में दूसरे ऋत्विक् को अध्वर्यु कहते हैं। यज्ञ का सारा क्रियात्मक अनुष्ठान अध्वर्यु द्वारा ही होता है। यह अध्वर्यु जिस वेद के मंत्रों का प्रयोग करता है, वह है यजुर्वेद। अतः यजुर्वेद को ही अध्वर्युवेद कहते हैं। यजुर्वेद के मन्त्र प्रधानतया गद्यात्मक हैं। (गद्यात्मको यजुः) । अथवा जिन मन्त्रों के अक्षरों का अन्त अनिश्चित होता है उसे यजु कहते हैं- (अनियताक्षरावसानो यजुः) । ___“यजुस्" शब्द जिस "यज्' धातु से साधित हुआ, उस धातु के देवपूजा, संगतिकरण और दान (यज् देवपूजा संगतिकरणदानेषु) ये तीन अर्थ पाणिनीय धातुपाठ में कहे हैं। तदनुसार यजुर्वेद के मन्त्रों का देवपूजा इत्यादि धार्मिक विधियों से संबंध रहता है। ऋचाओं से स्तवन और यजु से यजन करना चाहिए (ऋग्भिःस्तुवन्ति यजुर्भिः यजन्ति) ऐसा सम्प्रदाय है। पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में कहा है कि, “एकशतम् अध्वर्युशाखाः। यजुरेकशतात्मकम्" याने यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाएं थी। परंतु आज उनमें से केवल पाच शाखाएं विद्यमान हैं : (1) कठ शाखा - इसकी कपिष्ठल नामक उपशाखा थी वह आज लुप्त हो चुकी है। इस शाखा के ब्राह्मण काश्मीर में अत्यल्प संख्या में मिलते हैं। (2) कालाप शाखा - इसका दूसरा नाम है मैत्रायणी। आज इस शाखा के लोग गुजरात में कहीं कहीं मिलते हैं। मैत्रायणी संहिता के चार कांड हैं जिनमें 54 प्रपाठक हैं। प्रो. श्रोडर ने काठकी व कालाप शाखाओं का संपादन किया है। यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में सात कांड हैं जिनके 44 प्रपाठक हैं। इसी संहिता की (3) आपस्तम्ब और (4) हिरण्यकेशी नामक दो शाखाएं विद्यमान हैं। इन शाखाओं के ब्राह्मण गोदावरी के परिसर में होते हैं। प्राचीन काल में तैत्तिरीय अथवा आपस्तंब शाखा के लोग नर्मदा के दक्षिण प्रदेश में रहते थे। (5) वाजसनेयी शाखा - ऋषि याज्ञवल्क्य इस शाखा के प्रवर्तक माने गए हैं। वाजसनेयी संहिता की काण्व और माध्यन्दिन नामक दो उपशाखाएं है। काण्वशाखीय महाराष्ट्र में और माध्यन्दिन शाखीय मध्यभारत तथा ईशान्य प्रदेश में मिलते हैं। याज्ञवल्क्य की वाजसनेयी संहिता में 40 अध्याय हैं । अंतिम 40 वां अध्याय ही ईशावास्योपनिषद् नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार यजुर्वेद की जो पांच शाखाएं आज यत्र तत्र विद्यमान हैं उनमें से कठ-कपिष्ठल, कालाप, (मैत्रायणी), तैत्तिरीय और काठक इन शाखाओं का कृष्ण यजुर्वेद में अन्तर्भाव होता है। यजुर्वेद के दूसरे भाग का नाम है शुक्ल यजुर्वेद अथवा वाजसनेयी संहिता। काण्व और माध्यन्दिन, शुक्ल यजुर्वेद की उपशाखाएं हैं। यजुर्वेद का वर्गीकरण शुक्ल (वाजसनेयी) कृष्ण (तैत्तिरीय) काण्व माध्यन्दिन आपस्तंब कठ काठक हिरण्यकेशी (कपिष्ठल) कालकाप (मैत्रायणी) __ यजुर्वेद की शुक्ल और कृष्ण संज्ञाओं का एक कारण यह बताया जाता है कि- शुक्ल यजुर्वेद की संहिता में केवल मंत्रों का ही संग्रह है। उनका विनियोग बतानेवाले ब्राह्मण भाग का मिश्रण इस संहिता में नहीं है। अतः इसे "शुक्ल' संज्ञा दी गई। कृष्ण यजुर्वेद में छंदोबद्ध मंत्र और उनका विनियोग बतानेवाले गद्यात्मक वाक्य, दोनों का मिश्रण पाया जाता है। इन संज्ञाओं का दूसरा कारण, एक प्रसिद्ध कथा के द्वारा बताया जाता है। वह कथा इस प्रकार है : वेदव्यास ने संपूर्ण 12 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only

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