________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
किया। सिंधु नदी के तट पर निवास करते समय इस समूह के विद्वानों ने वैदिक ऋचाओं की रचना की। उन ऋचाओं के संग्रह को ही ऋग्वेद कहते हैं।
मंत्र, ब्राह्मण और सूत्र इनकी निर्मिति का मैक्समूलर के माने हुए सूत्रकाल (ई. पू. 1200-1000) के बारे में व्हिटनी का मतभेद है। छंदों का काल व्हिटनी के मतानसार ई.पू. 2000 से 1500 तक माना गया है। प्रो. केणी ने व्हिटनी के मत को अपनी अनुमति दी है।
प्रो. हाग ने वेदांग ज्योतिष के आधार पर वेदकाल का निर्णय करने का प्रयत्न किया है। अपने अध्ययन से प्रो. हाग ने यह निष्कर्ष निकाला है कि, ई. पू. 12 वीं शताब्दी के पहले भारतीयों का ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान इतना अधिक प्रगत हुआ था कि (1) वे नक्षत्र-तारकाओं के विषय में सूक्ष्म निरीक्षण कर सकते थे। (2) ब्राह्मण ग्रंथों में प्रायः सभी क्रिया कर्मों का समावेश हो चुका था। हाग के मतानुसार ब्राह्मणों की रचना का समय ई. पू. 1400 से 1200 तक और संहिताओं की रचना का काल ई. पू. 2000 से 1400 तक निर्धारित हुआ है। तथापि कुछ ऋचाओं एवं यज्ञविधि में मंत्रों का काल इस के कई शतक पहले हो सकता है। तात्पर्य वैदिक साहित्य का प्रारंभ काल ई. पू. 24 वीं शताब्दी मानने में प्रत्यवाय नहीं होना चाहिए। संभवतः यही ऋग्वेद का प्रारंभ काल था।
"चत्वारीति वा अन्यानि नक्षत्राणि अर्थतः एवं भूयिष्ठा यत् कृत्तिकास्वादधीत एता ह वै प्राचो दिशो न च्यवन्ते। सर्वाणि ह वा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्य दिशश्चवन्ते" इस मंत्र के आधार पर ऋग्वेद का समय निर्धारित करने का प्रयत्न ज्योतिर्विदों ने किया है। प्रस्तुत मंत्र में कहा है कि, अन्य सारे नक्षत्र पूर्व दिशा की ओर जाते हैं, परंतु कृत्तिका नक्षत्रपुंज पूर्व की ओर नहीं जाता। शतपथ ब्राह्मण के इस वर्णन के अनुसार कृत्तिका नक्षत्र की स्थिति ई. पू. 3000 के समय हो सकती है। अतः वही कृत्तिका नक्षत्र का काल हो सकता है। तैत्तिरीय संहिता, शतपथ से पूर्वकालीन होने के कारण, उसका समय शतपथ से दो सौ वर्ष पूर्व माना जा सकता है। तात्पर्यतः ऋग्वेद संहिता ई. पू. 3200 से भी पूर्वकालीन होनी चाहिए।
लोकमान्य तिलक लोकमान्य तिलक का सांस्कृतिक कार्य उनके राजनैतिक कार्य जैसा ही महान था। प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में उनका योगदान अनेक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उन्होंने संपूर्ण संस्कृत वाङ्मय में यत्र तत्र उपलब्ध ज्योतिःशास्त्र विषयक निर्देशों के आधार पर वैदिक वाङ्मय की निर्मिति के चार विभाग किये हैं :
(1) मृगशीर्ष-पूर्व काल (प्री-ओरायन पीरियड)-ई. पू. 6000 से 4000 (2) मृगशीर्षकाल-(ओरायन पीरियड) ई. पू. 4000 से 2500 (3) कृत्तिकाकाल-ई. पू. 2500 से 1400 (4) सूत्रकाल-ई. पू. 1400 से 500
अपने “ओरायन" (मृगशीर्ष) नामक पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथ की प्रस्तावना में लोकमान्यजी ने, वेदकाल विषयक अपना मत-प्रतिपादन स्पष्टतया किया है। वे कहते हैं कि "ऋग्वेद में निर्देशित परंपरा जिस जिस काल का संकेत करती है, वह काल ई. पू. 4000 के बाद का नहीं है। यह काल याने, जब वसंत संपात मृगशीर्ष में होता था, अर्थात् मृगशीर्ष से विषुवीय वर्ष का प्रारंभ होता था।
ऋग्वेद का यही काल जर्मन पंडित प्रो. कायाकोबीने ने भी निर्धारित किया है। उन्होंने अपना निष्कर्ष, ऋग्वेद से आधुनिक काल तक, ऋतु चक्र में जो क्रमशः परिवर्तन हुए, उसके आधार पर किया है।
डा. रामकृष्ण गोपाल भांडारकर ने वेदों में प्रयुक्त "असुर" शब्द का "असिरीयन्" शब्द से साम्य दिखाते हुए ई. पू. 2500 तक वेद-रचना का काल निश्चित किया है।
. अथर्ववेद का काल अर्थववेद का नाम-निर्देश ऋग्वेदीय शांखायन तथा आश्वालायन श्रौत सूत्रों में, कृष्ण यजुर्वेदी तैत्तिरीय ब्राह्मण में, शुक्ल यजुर्वेदी शतपथ ब्राह्मण में और पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में मिलता है। इन ब्राह्मण ग्रंथों ने वेदत्रयी से इस चतुर्थवेद का संबंध जोडा है और इसे त्रयी का "शुक्र' अर्थात रहस्य माना है। इसका प्रमुख कारण यह है कि, इस में तीनों वेदों के मंत्र संगृहीत हुए है।
__ भाषा की दृष्टि से ऋग्वेदीय मंत्रों का अंश छोड कर, अन्य मंत्रों की भाषा में, भाषाशास्त्रज्ञों की दृष्टि से अपनी कुछ निजी विशेषता मानी जाती है । तथापि केवल उसी एक प्रमाण के आधार पर इस संहिता की रचना का काल निश्चित करना कठिन है।
___ ऋग्वेद और अथर्ववेद में कुछ भौगोलिक और सांस्कृतिक चित्रण अनोखा सा मिलता है। जैसे ऋग्वेद में चित्रक (चीता) का उल्लेख नहीं है, परंतु अथर्ववेद में उस वन्य प्राणी का उल्लेख आता है। यह प्राणी बंगाल में अधिक संख्या में दिखता है अतः अथर्ववेद का संबंध उस प्रदेश से माना जा सकता है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 11
For Private and Personal Use Only