Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 12
________________ (अ) अाफ़ रिलीजन पेगड इथिक्स (भाग ७ पृष्ट ४.५) के निम्न लिखित वाक्यको मर्योपरि अन्तिम सम्मति समझनी चाहिये। “ बावजूद उस पूर्ण मत-भेदके जो उन के सिद्धान्तोमें पाया जाता है जनमत व वुद्धमत जो दोनों अपने प्रारमिक समयों में ब्राह्मण धर्मकी मीमाके बाहर थे वाह्य स्वरूपमें कुछ कुछ एक दूसरेसे मिलते हैं। जिसके कारण भारतीय लेखक भी उनके सम्मधमें कमी कभी भ्रम में पड़ गये है। अतएव यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि कतिपय पाश्चात्य विद्वानों ने जिनका जैन धर्मका परिचय जैन साहित्य के अपूर्ण दृषिपात पर ही निर्भर था स्वयं सहजही में यह मत स्थिर कर लिया कि वह बुद्धमत की शाखा है। लेकिन तवसे यह निस्सन्देह सिद्ध हो. गया है कि उनका विवर असत्य है और जैन मत कम से कम उतना ही प्राचीन है जितना बुद्धमत । म्योंकि बुद्धमतके शास्त्र जैन धर्म का उल्लेख उनके प्राचीन नाम “निग्रन्थ" से एक समकालीन विपक्षी मतके ममान कर• ते हैं ...... .......व उनके प्रचारक नातपुत्र (नात और नाती पुत्र जैन मतके अन्तिम तीर्यकर बर्द्धमान महावीरका उपनाम था )का वर्णन करते है और वह जैनियोंके कथना. नुसार 'पावा' को उक्त तीर्थकरका निर्वाणक्षत्र चलाते हैं और दूसरी ओर जैनियों के शान उन्हीं राजाओं को पहा. वीरका समकालीन बताते हैं जो उनके विपन्नी मनके प्रचा.

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