Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 14
________________ जेनरज जे. जी. प्रार० फारलांग, एफ-आर-एस-ई, एफ प्रार-ए-एस एम० ए० आई इत्यादि को सम्मति 'कोर्ट स्टडीज इन दि साहनत माफ़ कम्परेटिउ रेलीजन्स' के पृष्ट २४३२४४ से उधृत करना ही पर्याप्त होगी। " अनुमानतः ईसा पूर्वके १४०० मे ८०० वर्ष तक बल्कि अमात समयसे सर्व ऊपरी, पश्चिमीय, उत्तरीय मध्यमारत, तृरानियोंका, जो मावश्यक्तानुसार द्राविट कहलाने थे और जो वृत्त, सर्प और लिंगकी पूजा करते थे, शासन था । ......परन्तु उस ही समय में मर्च परी भारतमें पक प्राचीन सभ्य, दार्शनिक और विशेषतया नतिक सदाचार व कठिन तपस्यावाला धर्म अर्थात् जैनधर्म भी विद्यमान था। जिसमें स्पष्टतया ब्राह्मण और बौद्धधर्माक प्रारंभिक संन्यास भावोंकी उत्पत्ति हुई।" "आर्योके गंगा क्या सरस्वती तक पहुँचने के भी बहुन समय पूर्व जैनी अपने २२ वोडों संतों अथवा तीर्य करें द्वारा जो ईसासे पूर्व की ८ वी वी शतादीके ऐतिहासिक २वें तीर्थंकर श्रीपाश्वनाथसे पहिले हुए थे, मिक्षा पा चुके थे और भोपार्श्व अपने से पूर्वके सद तीर्थकरोंसे मार उन धर्मात्मा मृपियोसे जो दीर्घ २ कालान्तर मे हुये गे, जानकारी रखते थे और उनको बहुत से अन्य जो उमसमयमें भी 'पूर्वो' या पुराणों अर्थात् प्राचीन के तौर पर प्रमिद्धये और जो युगान्तरोंसे विख्यात व वाणप्रस्यों के द्वारा कगठस्प

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