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कि वह वंधनके लिहाजसे कर्मके विभिन्न भागों में भाजित हो जाता है और उसमे कर्म प्रतियां बनती हैं और इस विभाजित होने में विद्यमान. आन्तरिक भावोका वडा प्रभाव पहता है। यह भाव रवयम् व्यक्तिगत विचारों पर निर्भर है । पुण्य और वैराग्य प्रात्माका बल और वीगनाको बढ़ाते हैं और पाप उसको निर्वल और अधोगति अवस्थामें डालता है।
इन उपरोक्त विचारों के लिहाजसे वेदोंमें वर्णन किये गये देवताओंके बलिदानका अर्थ उन कृतियोंसे समझना चाहिये जिनसे जीवन क्रियाओंका जो देवी देवताओंके रूपमें वर्णित हैं पालन पोषण होता है, और किसी भावमें भी प्राणियोंका रक्त. पात नहीं समझना चाहिये । विशेष करके वलिटानका संबंध आत्माके स्वाभाविक शुद्ध गुणोंसे है जो इच्छायों के मारने और तपस्यासे प्रगट होते हैं। पौद्गलिक प्रास्रव जो निःस्वार्थ कर्मसे होता है शुभ बंधनका कारण है और इस 'भेंट' (पुण्य प्रास्रव) का विविध प्रकारकी शुभ कर्म प्रकृतियों में विभाग होता है जो देवताओंका भाग कहा गया है। ऋग्वेदके १६२३ सुक्तके प्रथम तीन मन्त्रोंके भावार्थका समझना अव कठिन नहीं है। उनका सबंध मन (अश्व ) के वशमें करने (- नष्ट करने प्रत. एव मार डालने वा बलि चढ़ाने ) से है जिसके पूर्व कामवासन का (जिसका अनुरूपक वकरा है) स्वभावतः नाश करना आबश्यक है। यह विदित होगा कि. यह यज्ञ देवताओंसे सीधा संबंध रखता है और उनकी पुटिका तत्कारण है जबकि