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( ८२ ) वह पाये जाते हैं प्रथक समझने के कारण पैदा होते है, बचनेके लिये वाहरी उपायके नौर पर है, तो भी इस विचारका मनमें रखना उस मर्मके जाननेके लिये जो हिन्दुओंके हन्द्रादि देवताओं संबंधी कल्पनाओंमें पाया जाता है आवश्यक है।
इन्द्र के अपनी गुरुकी पती अहिलपासे भांग करनेवाली कथाकी व्याख्या करते हुये यह बात जानने योग्य है कि आत्मा का पुद्गलसे समागम नितान्त मना है, क्योकि मोक्षका अयही एकका दूसरेसे पृथक होना है। इससे आत्माका पुद्गल में प्रवेश करना एक वर्जित किया है, और इस कारण उसे व्यभिचार कहा गया है। अव चूंकि पुद्गल बुद्धिके ज्ञानका, जो जीवका शिक्षक है, मुख्य विषय है, इसलिये श्रात्मा और पुद्गलका समा. गम गुरुकी पत्नीके साथ व्यभिचार कर्म हो जाता है । आत्माके पुद्गलमे प्रखण्ड एकताके रुपमे प्रवेश करनेका फल अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति है (जैसे योगवाशिष्टके उल्लेखमें वर्णन है) जिनमें से प्रत्येक जीव पौद्गलिक परमाणुओंमे शरीरधारी हो जाता है और माइका अंधकारमयी प्रभावके कारण फोड़े फुरसी के सदृश होता है। परन्तु यह जीव फिर शीघ्र ही आत्माके ज्ञान और विश्वास द्वारा ( जिसको अलंकारकी भाषामें ब्रह्माजी अर्थात् ईश्वरकी उपासना कहा गया है ) आत्मवोध प्राप्त कर लेते हैं, और फिर पूर्णता और सर्वशताको पा लेते हैं, इसलिये 'वह नेत्रों में परिणत हुये कहें गये हैं।