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( ८१ ) लेकिन यहाँ पर हमारा अभिप्राय सांख्यदर्शनों के सृष्टि-विकाश संबंधी विचारोंसे नहीं है वरन इसीसे है कि पुरुष से जीवात्माओं की उत्पत्ति किस प्रकार होती है जिसका वर्णन हिन्दुओं के प्रमाणित शास्त्र योगवाशिष्टमें निम्न प्रकार दिया गया है।
"उ र 'ह्मणके समान जो अपने उच्च पदसे च्युत हो कर शूद्र हो जाता है, ईसा (ईश्वर) भी जीयमें पतित हो जाता है । सहस्त्रों जीव प्रत्येक सृष्टि चमकते रहेंगे। उस उत्पन्न करनेवाले विचारके आन्दोलन से जीविक ईश्वर प्रत्येक विकाश में उत्पन्न होंगे। परन्तु इसका कारण यहां
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इसमें ) नहीं है । जो जोन कि ईश्वरने निकलते हैं और उनी अहानासे उन्नति करते हैं भरने कर्मों द्वारा वारकवार जन्म मरणको शाम होते हैं । हे राम ! यह कार्य कारण संबंध है जो कि जीवोंगी उत्पत्तिके लिये कोई कारण नहीं है तो भी सत्ता और कर्म आपस में एक दूसरे के लिये कारण हैं । समस्त जीव घगैरह कारणके ईश्वरीय पदसे निकलते हैं, मगर उनको उत्पत्ति के बाद उनके कर्म -उनके दुःख और सुखके कारण होते हैं। और संकल्प मो आत्मोधकी अज्ञानताको मायासे उत्पन्न होता है सब कर्मोका कारण है।"
हिन्दुओं का ऐसा विचार एकसे अनेक हो जानेके धारेमें है, और यद्यपि यह विचार सदोष है और उन कठिनाइयोंसे जो साधारण मानसिक विचारों अर्थात् गुणोंको पदार्थोंसे जिनमें