Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 98
________________ (८९) निस्सन्देह धर्म नहीं है, यद्यपि वह व्याकरण, गणमा और अन्य साइन्सेजकी भांति शानका एक उपयोगी विभाग है। अगर न्यायके नियमों को तत्व कहा जा सका है तो हमको व्याकरणके भङ्गों-संशा, क्रिया इत्यादि-और गणित विद्याके नियमोंको भी तत्व कहना पड़ेगा परन्तु यह स्पष्टतया वाहियात है। नैयायिक लोग इस कठिनाईसे अपने दूसरे तत्वके अभिप्रायमें बारह प्रकार के पदार्थोंको शामिल करनेसे यवनेकी कोशिश करते हैं अर्थात् (१) आत्मा (२) शरार (३) शानइन्द्रिय (४) अर्थ ( जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, गर्भित हैं) (५) बुद्धि (६) मन (७) प्रवृत्ति (रचन, मन, या शरीर द्वारा उपयोग) (८) दोष (जिसका भाव राग देप, मिथ्या ज्ञान या मूढ़ता है) (8) प्रत्येक भाव (पुनर्जन्म ) (१०) फल ( नतीजा या परिणाम ) (१९) दुःख ( १२) अपरगे ( दुःखसे छुटकारा )। परन्तु परिणाम पड़ी गड़बड है क्योंकि दूसरा नत्व प्रमेय से सम्बंध रखना है जिसमें समस्त रेय पदार्थ और इसलिये समस्त अस्तित्व पदार्थ अन्तर्गत हैं और इस कारण वह बारह ही पदार्थों पर सीमित नहीं हो सका है। इस माग (किरम) चंदीमा नियम विरुद्ध होना, इसमें स्पष्ट है कि इसमें अत्यंत आवश्यकीय बातों जैले प्राव, बंध, संपर और निजगपर विल्कुल ध्यान नही दिया गया है और ऐसी अपनानश्यकीय यातों पर जैसे स्पर्श रस इत्यादि पर आवश्यकासे अधिक जोर दिया गया है। जल्प, वितण्डा और छलका (जातिको शुभारमें

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