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Srilai Jain Jain Siddhant Prakashak Press, Bishwakosh Lane, BaghBazar, Calcutta.
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श्रीवीतरागाय नम ।
सनातनजैनधर्म
अथवा
जैनधर्मकी प्राचीननाके ज्वलन्त प्रमाण ।
मूल लेखक और प्रकाशकश्रीमान् चम्पतरायजी जैन वरिष्टर-एट-ला,
हरदोई।
प्रथमावृत्ति । पौष, वीरनिर्वाण सवत् १४५० । १... 5 जनवरी १९ ." { न्योटायर ,
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भूमिका।
प्रिय पाठकगण !
यह हमारे परम सौभाग्यका अवसर है कि इस ऐतिहासिक और शास्त्रीय उद्यानके अपूर्व सुमनको लेकर मैं आपके समत आज उपस्थित होताई। यद्यपि में न कोई प्रसिद्ध लेखक अथवा विद्वान ही हूं, तथापि इस शास्त्रीय उद्यान में एक सुमनकी सुचारु गन्धने मेरे हृदयमें एक अभिनव उल्लास उत्पन्न किया, यह कृति उजीकी फल स्वरूप है। मैंने इसे उस उद्यानसे चुनकर धर्म के प्रशस्त उद्यानको सुसजित करके इसको शोमा वृद्धि करने के लिये प्रयत्न किया है। हां, सुसजित करने की प्रशंसनीय प्रणाली एक दूसरे विण्यात एवं स्वनामधन्य विद्वान् लेखककी है। केवल कुशल कारागरकी कुदरती करामातकी खूबी दिखानेवाला में आशा है, इस सुमनके सौरभसे शास्त्रीय उद्याभके रसिया भौरोंका मन यथेष्ट लग्र मुग्ध होगा। इस सुमनके नव विकातसे जो नूतन सुगंधि हर ओर फैलेगी, विश्वास है कि उसका विनाश और सत्य तथा अहिंसा का यथेच्छ प्रचार होगा और भारत-माताकी पुनीत आत्माको दिव्य ज्योति भ्रम और शंकाकी अधियारी दूर कर देगी। मैं नहीं समझता किस सुमनको नया रूप रंग टेनेमें मुझे कहा सक सफलता है।
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(२)
अन्तमें मैं जैनधर्म के अभ्युदयके काप्यों तल्लीन रहनेवाले, हिन्दो माताके गौरववद्ध सुपूत मरने परम प्रिय भ्राता स्व. कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैनकी पवित्र आत्माका स्मरण किये तथापि अन्यवाद की सुमनांजलो समर्पण किये बिना नहीं रह सक्ता, जिनकी कृपासे अनेक सुमन घमे के उद्यान में थारोपित और पल वित होकर विकसित रूपमें प्रकट हुए हैं। इस मुमनके प्रकाश का भी बहुत कुछ श्रेय उन्ही को आत्माको प्राप्त है।
मेरो आशा है कि सभी धमनिष्ठ मजन म यतन प्रमाणों वाली निराली पुस्तकको एक बार ध्यानपूरक नया नियता पूर्वक पढ़कर मेरे परिश्रमको सार्थक करेंगे। ७-८-२३ ]
के० पी जैन.
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AVAL
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शुद्धाशुद्ध सूची।
सतर
अशुद्ध
विवर
विचार
होगी
होगा
जन
को, मानघ
को मानप इसस
इससे उनकी
उनके तप जो मनुष्य तप मनुष्य देवताओंको फल देवताओं को
करीय
असम्भव है मसम्भव है। मात्माका मात्माके
करीब २ अनोलोग। जेनीलोग, भानवका मानव प्राचीन हैं। प्राचीन है"
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(२)
सतर
प्राणों
अशुद्ध मिला मिलता নী
ईश्वर भाजन भोजन असम्भव सम्भव मायात आयत
प्रणों की लहर की उस लहर को
के वर्णन है.
वर्णन
कोनों धर्मकी
हिन्दू धर्मकी कलि कील दर्शायेंगे। दर्शायेंगे अमरको अमरके कि अप्रबल प्रयल समय समयवाली
उनकी अतिरिक्त, अतिरिक्त कुछ वर्णन न करेंगे, वर्णन करेंगे
कूत्रों
उनको
41
१५...
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सतर
शुद्ध
अशुद्ध शब्दों
ব্রিল মা
है
और
घायुम
वायु कम
पन
इन
उस जाजेन जो जैन होते हैं, होते हैं। होते हैं रहते हैं
साया अपने
दूर नहीं दूर ही नहीं दृश्य दिखलाती दृश्य भी दिखलाती
प्रारधोका प्रारराधों की उमफी उम्मको प्रमाणिक प्रमाणित
तुलना (Gifto) (Gifts ) ( boulble ) ( double ) जाघात्मा
जीयान्मा जोकि
गोंकि
वगैरह
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पृष्ठ । - सतर
शुद्ध
अशुद्ध माइका
माद्दे के शिष्योंका शिष्योंको
सकपाल एकवाल तातियाका अंगरेजी तातियाका अनुवाद प्रकाश प्रकाश
तत्वों में तत्वोम न
शरार अपनावश्यकीय अनावश्यकीय
शरीर
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श्रीवीतरागाय नमः । जैनधर्मकी प्राचीनता।
श्रीतीर्थकरप्रणीत मत अथवा जैनधर्मको उत्पत्तिका विषय पूर्वी भापायोके विद्वानों के लिये जिन्होंने इसके विकाश प्रति अनेक मनमानी कल्पनाये रची हैं, भ्रम और भूलका एक मुख्य कारण रहा है। कुछ समय पूर्व यह अनुमान किया जाता था कि माकी छठी शताब्दी में जैन धर्म बौद्ध धर्मको शाग्वासपने प्रस्फुटित हुआ था और भारतीय इनिहासमें भी जो हमारे स्कूलों में कुछ समय पूर्वतक पढ़ाया जाता था यही शिक्षा दीजानी थी । परन्तु नई खोजने यह पूर्णतया प्रमाणिन कर दिया है कि “यह (जैन) धर्म महामा बुद्ध से कम से कम तीन ३०० सौ वर्ष पूर्व विद्यमान था और आधुनिक पूर्वी भापामापी विद्वान अब इस बात पर सहमत हो गये है कि २३ तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ स्वामी कोई काल्पनिक व्यक्ति न थे यक्कि एक ऐतिहासिक पुरुष हुये हैं।" इस पाप्याके मस्य होने के
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(२)
हेतुमें विशेष प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है । केवल निम्न लिखित विद्वानोंके वाक्य ही यह पूर्णतया दर्शा देंगे कि " वौद्ध धर्म जैन धर्मका निकासस्थान किसी प्रकार नहीं हो
सक्ता ।
ु
डा० टी० के० लड्डका कथन है कि "वर्द्धमान महावीर स्वामी से पूर्व जैन समयके इतिहास की कोई विश्वसनीय खोज हम नहीं कर सक्ते, परन्तु यह निश्चय है कि जैनधर्म बौद्धधर्म से पहलेका है और उसको महावीर स्वामी के पूर्व पार्श्वनाथ या किसी और तीर्थकरने स्थापित किया था, "
महामहोपाध्याय डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषणका + भी इस विषय में हृढ़ विश्वास है और वह लिखते हैं कि यह निश्चित समझा जा सक्ता है कि
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"इन्द्रभूति गौतम जो महावीर स्वामीके गणधर थे और जिन्होंने उनकी शिक्षाओंको एकत्रित किया था, वौद्धधर्म के प्रचारक गौतमबुद्ध, और ब्राह्मण न्यायसूत्रों के रचयिता . अक्षपाद गौतमके समकालीन थे ।"
योरुपीय विद्वानोंकी ओर दृष्टि डालते हुये इन्साइक्लोपीडिया * देखो
डाक्टर लड्डू साहवका सपूर्ण व्याख्यान अंग्रेजी भाषामें जिसको मंत्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशीने प्रकाशित किया है ।
and
+ अंगरेजी जैनगजट भाग १० अंक १ देखो
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(अ) अाफ़ रिलीजन पेगड इथिक्स (भाग ७ पृष्ट ४.५) के निम्न लिखित वाक्यको मर्योपरि अन्तिम सम्मति समझनी चाहिये।
“ बावजूद उस पूर्ण मत-भेदके जो उन के सिद्धान्तोमें पाया जाता है जनमत व वुद्धमत जो दोनों अपने प्रारमिक समयों में ब्राह्मण धर्मकी मीमाके बाहर थे वाह्य स्वरूपमें कुछ कुछ एक दूसरेसे मिलते हैं। जिसके कारण भारतीय लेखक भी उनके सम्मधमें कमी कभी भ्रम में पड़ गये है। अतएव यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि कतिपय पाश्चात्य विद्वानों ने जिनका जैन धर्मका परिचय जैन साहित्य के अपूर्ण दृषिपात पर ही निर्भर था स्वयं सहजही में यह मत स्थिर कर लिया कि वह बुद्धमत की शाखा है। लेकिन तवसे यह निस्सन्देह सिद्ध हो. गया है कि उनका विवर असत्य है और जैन मत कम से कम उतना ही प्राचीन है जितना बुद्धमत । म्योंकि बुद्धमतके शास्त्र जैन धर्म का उल्लेख उनके प्राचीन नाम “निग्रन्थ" से एक समकालीन विपक्षी मतके ममान कर• ते हैं ...... .......व उनके प्रचारक नातपुत्र (नात और नाती पुत्र जैन मतके अन्तिम तीर्यकर बर्द्धमान महावीरका उपनाम था )का वर्णन करते है और वह जैनियोंके कथना. नुसार 'पावा' को उक्त तीर्थकरका निर्वाणक्षत्र चलाते हैं और दूसरी ओर जैनियों के शान उन्हीं राजाओं को पहा. वीरका समकालीन बताते हैं जो उनके विपन्नी मनके प्रचा.
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(४) रक वुद्धके समयमें राज्य करते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि महावीर, बुद्धके समकालीन थे और अनुमानतः बुद्ध से जो उनके 'पावा' पुरीमें निर्वाणको प्राप्त होने के पश्चात् भी जीवित रहा, कुछ पहिले हुए थे । परन्तु महावीर बुद्ध की भांति उस मतके व्यवस्थापक न थे जो तीर्थकरके समान उनका सम्मान करता है और न उसमतके प्रारं भिक संचालक थे . ...... उनके पूर्वके पावं नामक २३ वे तीर्थकर जैन धर्मको संस्थापक कहे जानेके अधिक योग्य जान पड़ते है...... ........परन्तु ऐतिहासिक प्रमाणोंके प्रभावमें हम अनुमानसे आगे बढ़नेका साहस नहीं कर सके।" हम डाजोन जार्ज व्युहलर C. 1. EL L.B. Ph.D. का भी प्रमाण देते हैं जो अपनी 'दि जैन्स' नामक पुस्तक पृष्ठ २२-२३ पर लिखते हैं कि
"वौद्धधर्मावलम्बी स्वतः ही जैनियोंके तीर्थकरसंबन्धी कथनकी पुष्टि करते हैं । प्राचीन ऐतिहासिक व्याख्याएं व शिलालेख भी बुद्धको मृत्युको पश्चातको प्रथम पांच शताब्दियोंमें जैन धर्मको स्वतन्त्रताको सिद्ध करते हैं और शिलालेखोंमें कुछ ऐसे हैं जो जैन पुराणोंको केवल कपोल कल्पित गढन्ते ( Fraud ) होनेके कलझसे ही मुक्क नहीं कर देते हैं वरन् उनकी सत्यताके दृढ साक्षी हैं।"
अब इस विषयपर केवल एक दूसरे विद्वान, मेजर
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जेनरज जे. जी. प्रार० फारलांग, एफ-आर-एस-ई, एफ प्रार-ए-एस एम० ए० आई इत्यादि को सम्मति 'कोर्ट स्टडीज इन दि साहनत माफ़ कम्परेटिउ रेलीजन्स' के पृष्ट २४३२४४ से उधृत करना ही पर्याप्त होगी।
" अनुमानतः ईसा पूर्वके १४०० मे ८०० वर्ष तक बल्कि अमात समयसे सर्व ऊपरी, पश्चिमीय, उत्तरीय मध्यमारत, तृरानियोंका, जो मावश्यक्तानुसार द्राविट कहलाने थे और जो वृत्त, सर्प और लिंगकी पूजा करते थे, शासन था ।
......परन्तु उस ही समय में मर्च परी भारतमें पक प्राचीन सभ्य, दार्शनिक और विशेषतया नतिक सदाचार व कठिन तपस्यावाला धर्म अर्थात् जैनधर्म भी विद्यमान था। जिसमें स्पष्टतया ब्राह्मण और बौद्धधर्माक प्रारंभिक संन्यास भावोंकी उत्पत्ति हुई।" "आर्योके गंगा क्या सरस्वती तक पहुँचने के भी बहुन समय पूर्व जैनी अपने २२ वोडों संतों अथवा तीर्य करें द्वारा जो ईसासे पूर्व की ८ वी वी शतादीके ऐतिहासिक २वें तीर्थंकर श्रीपाश्वनाथसे पहिले हुए थे, मिक्षा पा चुके थे और भोपार्श्व अपने से पूर्वके सद तीर्थकरोंसे मार उन धर्मात्मा मृपियोसे जो दीर्घ २ कालान्तर मे हुये गे, जानकारी रखते थे और उनको बहुत से अन्य जो उमसमयमें भी 'पूर्वो' या पुराणों अर्थात् प्राचीन के तौर पर प्रमिद्धये और जो युगान्तरोंसे विख्यात व वाणप्रस्यों के द्वारा कगठस्प
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( ६ )
चले प्राते थे, मालूम थे । यह विशेषतया एक जन सस्प्रदाय था जिसको उनके समस्त बौद्धों और विशेषकर ईसा पूर्वको ६ ठी शताब्दीके २४वें और अन्तिम तीर्थकर महावीरने जो सन् ५६८- ५२६ ईसाके पूर्व हुये, है नियमबद्ध रक्खा था । यह तपस्वियों (साधु) का मत दूरस्य वैकट्रिया और डेसिया (Baktia and Dacia ) के ब्राह्मण धौर वौद्ध धर्मो में जारी रहा जैसे हमारी स्टडी न० ? और सैकड वुक्स आफ दि ईस्ट भाग २२ और ४, (Smady I and S. Books E. Vols xxII & SLV) से ज्ञात होता है ।"
अजैन लेखकोंकी, जो प्रथमके २२ तीर्थकरों को ऐतिहासिक पुरुष नहीं मानते हैं, उपर्युक्त सम्मतिया इस वातको पूर्ण तौर से निश्चय कर देती हैं कि जैनधर्म कमसे कम २८०० वर्षसे संसारमें प्रचलित है, अर्थात् महात्मा बुद्ध से ३०० वर्ष पूर्व से । इससे यह सिद्ध होता है कि जैनधर्म किसी प्रकार वौद्ध धर्मकी शाखा नहीं कहा जा सक्ता ।
अब इन उक्त सिद्ध की हुई वातों से यह प्रश्न अवश्य होसक्ता है कि 'श्राया जैनधर्मका निकासस्थान हिन्दूधर्म है या नहीं ?" कुछ वर्तमान लेखकगण इस धर्मका, ब्राह्मण धर्मसे उसकी वर्णव्यवस्था के विरोध में पुत्रीरूपसे स्थापित होना मानते हैं (देखो दि हार्ट आफ जैनिज्म पृष्ठ ५) । . यह सम्मति इस विचार के प्रधार पर है कि ऋग्वेदको; मानव जातिके प्रारम्भिक शैशव काल 'के भावका संग्रह होनेके कारण, उन सब धर्मोसे, जिनमें बुद्धिम
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(७) ताका अधिक अंश है, अधिक प्राचीन होना चाहिये । इसी वात को मानकर यह कहा जाता है कि प्राचीन धर्मके विरोध जैन धर्म स्थापित हुआ और इस लिये इसको मूल धर्म (प्राचीन हिन्दु धर्म) की उद्दण्ड पुत्री समझना चाहिये। जिससे उसकी व. हुत गहरी सदृशता है।
दुर्भाग्यवश इस संबंध कोई वाह्य प्रमाण उपलब्ध नहीं क्योंकि न तो कोई प्राचीन स्मारक ही और न कोई ऐतिहासिक चिन्ह ही मिलते है जो इस प्रश्न पर प्रकाश डाल सके । इस बातका निर्णय केवल स्वयम दोनों धर्माके शा. स्त्रोंको प्रातरिक साक्षोसे, विना किसी बाह्य महायनाके ही का रना है। अतः हम दोनों धर्मोक सिद्धान्तोंका साथ साथ अध्य. यन करेंगे जिससे हम यह जान सके कि दोनोंमें अधिक प्राचीन कौन है ? प्रथम हिन्दू धर्मके ऊपर दृष्टि डालते हुये उस शास्त्रों में वेद, ब्राह्मण, उपनिपद और पुराण शामिल हैं। इनमें वेद सव से प्राचीन हैं। दूसरा नम्बर प्राचीनतामें ब्राह्मण शास्त्रोंका है। उसके पश्चात् क्रमसे उपनिपदोंका प्रौः फिर सबसे अन्तमें पुराणोका है। सव वेद भी एक ही समयके निर्मित नहीं हैं। ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। इस प्रकार हिन्दू मत उन धर्मों से है जो समय समय पर वृद्धि व उन्नतिको प्राप्त होते रहे हैं। ___ यह वात स्वयं अपनी साक्षी है, और इसस यह परिणाम
* जैन पुराण वास्तवमें जैनमतकी असीम प्राचीनताको सिद्ध करते हैं, लेकिन चूंकि वर्तमान इतिहासवेत्ता सिवाय इतिहासिक प्रन्योंके आर प्रन्थों पर अविश्वासके साथ दृष्टिपात करता है इस कारण हम इस लेख में उनका प्रमाण नहीं देंगे।
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(८)
निकलता है कि हिन्दू धर्म जैसा श्राज है वैसा सदैव नहीं रहा
और यह स्पष्ट है कि उसमें समय समय पर वृद्धि होती रही है ताकि उसमें पूर्णताका वह दृश्य आजाय जो निस्सन्देह वेदोंमें उनके पूज्य मंत्रोंकी रहस्यमयी भाषाके होते हुए भी नहीं पाया जाता है। जब यह विचारते हैं कि वेदोके समय अथवा वेदोंके पूर्व हिन्दू धर्मके सिद्धान्त ( Teachings ) क्या रहे होंगे तब वही कठिनाई पाकर पड़ती है जिसको उपनिपदके ले. खक भी पूर्णतया तय नहीं कर सके क्योंकि वेदों में किसी वैशानिक अथवा व्यवस्थित धर्मका वर्णन नहीं है. सुतरां केवल देवताओंको समर्पितमंत्रोंका संग्रह है जो अब सबके सब विविध प्राकृतिक शक्तियोंके ही रूपक (अलंकार) माने जाते हैं । ब्राह्मण शास्त्र तो स्वयं ही वैज्ञानिक होनेका दावा नहीं करते बल्कि वे यक्ष विषयक क्रियाकाण्डसे परिपूर्ण है। और उपनिषदोंकी बावजूद उनकी दार्शनिक प्रवृतिके भी समझने के लिए लम्बी व भारी टी. काओंकी आवश्यकता है। और वे ऐसी कथाओं आदिसे भी परिपूर्ण हैं जैसे ब्रह्माके स्वयं अपनी ही कुमारी पुत्री सद्र पासे बारबार बलात्कार सयोग करनेसे सृष्टि उत्पन्न होना (वृहद श्रारण्यक उपनिषद् १।४।४। षट्दर्शनों में भी जिनमें धर्म को कायदेसे तरतीव देनेका प्रयल है एक दूसरेका खण्डन ही किया गया है। तात्पर्य यह है कि प्राज भी कोई मनुष्य इस वातको नहीं जानता कि हिन्दू धर्मका असली स्वरूप क्या है यधपि ईश्वरशून्य सांख्यमतावलम्बी भी वैसा ही हिन्दू कहलाता है जैसा कि विष्णुका भक्त या शीतलाका उपासक जो चेचककी देवी हैं ! याचसंवन्धी विषयमें, इसमें कोई
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। संदेह नहीं है कि ऋग्वेदकी वास्तविक पवित्रतामें पशु बलिदानका । प्रतिवाद है और अजमेध अश्वमेध गोमेध और नरमेघ जैसे स
स्कार पीछेसे किसी दूरसमयमें शामिल हुये हैं। यह वात चैटिक अलंकारोंके वास्तविकस्वरूपसे साफ मालूम होती है। विशेषतया 'अग्नि के स्वरूपसे, जो तपका रूपक है क्योंकि तप जो मनुष्य व पशुमेधका पूरा विरोधी है,। और वेदोंके ऐसे वाक्य भी जेसे "भक्षकगण सन्तानरहित हों।" (देखो ऋग्वेद १२१.५) और वे वाक्य भी जिनमें राक्षसों व मांसभक्षकोंको श्राप दिया गया (देखो विलकिन्स हिन्दु माइथालोजी पृष्ठ २७। इस मतकी प्रवल पुष्टि करते हैं । इन यज्ञविषयक वेद विवरणको प्रतिरूपक भी षान्तर करनेका जो घोर प्रयत्न हिन्दुओंने स्वय पीछेसे किया है वह यही दर्शाता है कि हिन्दुओंका हृदय पशुवधसे किस कदर घृणा करता था। यह वात अंधकारमें है कि यज्ञ संपन्धी (वलिदान) विषय वेदों में कैसे मिलाया गया ।हां! केवल यह वात स्पष्ट है कि यह विषय हिन्दू धर्मके यथार्थ भावके विरुद्ध है। और इसलिये किसी बुरे प्रभावके कारण पीछेसे मिला दिया गया है। क्योंकि यह वात वुद्धिगम्य नहीं है कि कोई पवित्र धर्म ऐसे हिंसापूर्ण और कुमाग की ओर लेजानेवाले वाक्योंका प्रचार करे।
इस प्रकार हमारा हिन्दू धर्मका दिग्दर्शन पूरा होता है जिससे हमको यह कहने का अधिकार है कि विचार और भाषा की स्पष्टता ( Precision ) किसी समयमें भी इस धर्मके
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(१०) प्रसिद्ध चिन्ह नहीं रहे हैं। भावार्य-कि यह विचारों की अस्पष्टता और गडबडोसे जो धार्मिक काव्यका मुख्य चिन्ह है, कभी असंयुक्त नहीं रहा और इसकी जड एक चिन्दरूपी मन्त्रों के संग्रह परही मुख्यतया निर्भर है, जो व्यक्तिगत मानी दुई शक्तियों गणों आदिको अर्पित हैं-अतः उन काल्पनिक देवताओंका फज जो भूतकालके ऋपि कवियों की मानसिक उलझनोंमें मगन रहने वाली कल्पना शत्तिसे उत्पन्न हुये है।
जव हम जैन धर्मकी ओर देखते हैं तो हमको इससे एक विल्कुल विलक्षण वान दिखाई पड़ती है । जैन धर्म एक केवल वैज्ञानिक धर्म है और प्रात्मा अथवा जीवनके सिद्धान्तको पूर्णतया समझने पर असरार करता है। इसमें समयानुकूल परिवर्तन न होनेसे यह हमको अपने प्राचीन रूपमें मिलना है । यद्यपि गत १८०० सौ वर्पोमें इसकी सामाजिक व्यवस्थामें कुछ मतभेद अवश्य होगया है; परन्तु इसके सिद्धान्तोंमें न तो कोई पावश्यक दात मिलाई गई है और न कोई वान घटाई ही गई है जैनधर्म की अपूर्व पूर्णताको समझनेके लिये यह आवश्यक है कि इसके सिद्धान्तोंका वर्णन संक्षेपसे किया जाय ।
। जैन धर्म बताता है कि प्रात्माका मुख्य उद्देश्य परम सुख अर्थात् परमात्मापनकी अवस्थाका प्राप्त करता है यद्यपि आत्मा प्रत्येक अवस्थामें इस उद्देशसे अभिक्ष नहीं रहता है। जैन धर्म यह और भी बतलाता है कि आत्मा अपनी ही कृतिसे इस परमपदको पा सका है, कभी किसी दूसरेकी कृपा
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(११) या दयासे नहीं। इसका मुख्य कारण यह है कि सिद्धात्मा(परमास्मा का सर्वोच्च पद आत्माका ही निज सत्यस्वरूप है। जिसको वह अशुद्ध अथवा अपूर्ण अवस्था में विविध कर्मोक बंधनोंके कारण प्रकट नहीं कर सकता है। यह कर्म विविध प्रकारकी शक्तियां हैं जिनकी उत्पत्ति आत्मा और माई ( पुदगल) के मेलसे होती है और जो केवल स्वयम् आत्माकी ही कृतियोंसे नाश भी की जा सकती है। जब तक आत्मा अपने सत्य स्वभावसे अनभिज्ञ रहता है तब तक वह अपना स्वाभाविक स्वरूप और सुखको प्राप्त करनेका प्रयत्न नहीं कर सक्ता है। अतः आत्माके स्वभाव और अन्य पदार्थोका और उन शक्तियोका ज्ञान जो प्रात्माके स्वाभाविक गुणों को घात करती हैं कर्मोके बंधनसे छुटकारा पानेके लिये नितांत आवश्यक है।
वह यथार्थ अथवा सत्य ज्ञान है जो सात नियमों या तत्वों के सत्य श्रद्धानसे उत्पन्न होता है। जिसकी, आत्मा को उसके सुख-स्थान अथवा मुक्तिधाममें पहुंचानेको, आवश्यकता है।
और इस सम्यक् ज्ञानके साथ साथ सम्यक्चारित्र अर्थात् ठोक मार्गपर चलनेकी भी नितांत आवश्यकता है। जिससे कर्म बंधनोका नाश होकर संसारके आवागमन अथवा जन्म मरण के दुःखसे निवृत्ति मिले।
इस प्रकार सामान्य रोनिसे जैन धर्मकी यह उपर्युक्त शिक्षा है। और यह प्रत्यक्ष है कि यह सर्व शिक्षा लडी रूपमें है जो कारण कार्य के सिद्धान्त पर निर्भर है। अथवा यह एक पूर्ण
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(१२) वैज्ञानिक दर्शन है और इस खलाकी सबसे बड़ी बात यह है कि इसमेंसे एक कडीका निकलना भी विना कुलकी कुल लड़ी के तोड़नेके असम्भव है अतः यह सिद्ध होता है कि जैन धर्म कोई ऐसा धर्म नहीं है जिसको समयके अनुसार सुधारों अथवा उन्नति प्रादिकी श्रावश्यक्ता हो। क्योंकि जो प्रारम्भसे ही अपूर्ण होता है केवल वह हो अनुभव द्वारा उन्नति पा सक्का
वैदिक समयके हिन्दधर्मको देखनेसे हम जैन धर्मके सदृश क्रमवद्ध पूर्णता न तो ऋग्वेदमें ही और न अवशेप तीनों वेदोंमें ही पाते हैं । जिनके रचयिता केवल अग्नि. इन्द्र, सदृश कथा नक देवताओंकी प्रशंसा करके सन्तुष्ट हो गये हैं। सुतरां पुनजन्मका सिद्धान्त ही जो सत्य धर्मका मुख्य अङ्ग है वेदोंके कथानकोंमें कठिनतासे मिलता है और जैसा कि योरुपीय विद्वानोंका कहना है वेदों में केवल एक स्थानपर ही उसका उल्लेख पाया है, जहां 'श्रात्माका जल वनस्पतिमें स्थानांतर होने का वर्णन
इस प्रकार हम सिवाय इसके अपनी और कोई सम्मति स्थिर नहीं कर सक्ते हैं कि प्रारम्भिक हिन्दूधर्मका अर्थ यदि उसके बाह्य (स्थूल ) भावमें लगाया जावे तो वह जैन धर्मसे उसी प्रकार मित्रता रखता है जिस प्रकार कि दो असहश और निन्न वस्तुएं रखती हैं और वेदोंको जैन धर्म का निकासस्थान कहना असम्भव हो जाता है। यथार्थमें वास्तविकता
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( १३ )
इसके बिलकुल विरुद्ध है क्योंकि यदि हम इस ख्यालको दिलसे निकाल दें कि वेद ईश्वरकृत हैं और किसी प्रकार उनके अलंकृत मंत्रोंमें छिपे हुये सिद्धान्तों को समझ सके तो हम हिन्दू धर्मकी गुम रहस्यमयी शिक्षाको आसानीसे एक बाहरी निकास से निकलते हुये देख सके हैं यह वात पहिले ही सिद्ध हो चुकी है कि न तो निर्वाणका महान उद्देश और न भावागवनका सिद्धान्त जिसमें कर्मका नियम भी शामिल है प्रारम्भिक हिंदू शास्त्रों मे उनको स्थूल दृष्टिसे पढ़ने पर पाये जाते हैं । और यदि यह नियम वेदोंके कथानकोंमेंसे निकाले भी जा सकें तो भी उनका वर्णन वेदोंमें उस वैज्ञानिक ढंग पर नहीं मिलता है जैसा कि जैनशास्त्रों में । इस लिहाज से प्रारम्भका हिन्दू मत वौद्ध मतसे सदृशता रखता है जो आवागमनके सिद्धान्त और कर्म के फ़िल्सफेके उसूलको तो मानता है परन्तु बंध और पुनर्जन्मका वर्णन उस वैज्ञानिक तरह पर नहीं करता है जिस प्रकार कि जैनमतमें किया गया है। इन वातोंसे जो अर्थ निकलता है वह प्रत्यक्ष है और स्पष्टतया उसका भाव यह ठहरता है कि कर्म, व्यावागमन और मोक्षके सिद्धान्त हिन्दुओं या वौद्ध दार्शनिकोंने नहीं दर्यात किये थे और न वह उनको किसी सर्वन यानी सर्वज्ञानी गुरु या ईश्वरके द्वारा प्राप्त हुये थे ।
इस युक्ति ( विषय ) की श्रेष्ठताको समझनेके लिये यह याद रखना आवश्यक है कि कर्म सिद्धान्त रुहानी फिल्सफे (अध्यामिलान) का एक बहुत ठीक और वैज्ञानिक प्रकाश है और
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( १४ )
यह कि वह जीव और पुद्गल [ माद्दे ] के संयोग के नियमों और कारणों पर निर्भर हैं जिनमेंसे एकका अभाव भी उसकी सत्ताको विल्कुल नष्ट कर देने के लिये काफी है क्योंकि यह असम्भव है कि किसी निषेधरूपी सत्ताको किसी प्रकार - वांधा जा सके और यह भी असम्भव है कि किसी अनित्य पदार्थको कल्पित, सत्ता न रखनेवाली जंजीरोंसे बांध सकें। वौद्ध मत आत्माकी सत्ता ( नित्यता ) का विरोधी है और - कर्मोके वन्धनका किसी द्रव्यके आधार पर होना नहीं मानता है जब कि प्रारम्भिक हिन्दु धर्म आत्मिक पूर्णताके विज्ञानके विषय में कुछ नहीं बताता है। यह वाक्य स्वतः अपने भावोंको प्रगट करते हैं और इस विचारका विरोध करते हैं कि जैनियों ने अपने विस्तृत सिद्धान्त को इनमेंसे किसीसे लिया हो । यह भी संभव नहीं है कि हम ऐसा कहें कि जैनियोंने हिन्दु प्रोंके या किसी और मतके सिद्धान्तों के आधार पर अपनी प्रणाली स्थापित की। इस किस्म के विचारोंका पूर्णतया खण्डन इन्सा इक्लोपीडिया ऑफ रिज़ोजन ऐन्ड पथिक्स भाग ७ सात पृष्ठ ४७२ से उद्धृत निम्न लिखित वाक्योंसे होता है
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SC
अब एक प्रश्नका उत्तर देना श्रावश्यकीय है जो ध्यान पूर्वक पठन करनेवाले प्रत्येकके मनमें पैदा होगा यानी कर्म फलास्फीका सिद्धान्त जैसा कि ऊपर उसका वर्णन किया गया है जैनमतका प्रारम्भिक और मुख्य अंश है या नही ? यह प्रत्यक्षमें इतना गूढ़ और वनावटी जान पड़ता है
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(१५) कि दिल इस घातके मानने पर तत्पर हो जाता है कि यह एक ऐसा फल्सफा है जिसको किसी ऐसे प्रारम्भिक मतके ऊपर, जिसमें सब पदार्थोंमें जान मानी गई हो और जो सब प्रकारके जीवोंकी रक्षा करनेपर तुला हुआ हो, पीछेसे गढ़ कर लगा दिया गया हो। परन्तु ऐसा विचार इस वातसे विरुद्धतामें पड़ेगा कि यह कर्म सिद्धान्त अगर पूर्णतया विस्तारपूर्वक नहीं, तो भी विशेपतया अपने मुख्य स्वरूपमें पुरानेसे पुराने शास्त्रोमें उपलब्ध है और उनमें जो भाव दिखलाये गये हैं उनके उद्देश्य में पहिले ही से सम्मिलित है। और न हम यह अनुमान कर सकते है कि कर्म सिद्धान्तके विषयमें शास्त्र प्रारम्भिक "कालके पश्चात्को दार्शनिक उन्नति को प्रगट करते है। इस कारणमे कि श्रास्त्रव, सवर और निर्जरा आदिके यथार्थ भाव इसी मानीमें समझे जा सकते है कि कर्म एक प्रकारका सूक्ष्म माद्दा है जो प्रात्मामें आता है ( आस्त्र) उसका आना रोका जा सक्ता है अर्थात् उसके आनेके द्वारे बंद किये जा सक्ते हैं ( सवर ) और जो कर्मोका माहा पात्मामें सम्मिलित है वह उससे अलग किया जा सक्ता है (निर्जरा ) जैन लोग इन परिभाषाओंका अर्थ शब्दार्थमें लगाते हैं और इनका प्रयोग मोक्षसिद्धान्तके समझानेमें करते हैं (आस्रवोंका संवर और निर्जरा मोक्षके कारण हैं।) अब यह परिभाषायें इतनी ही पुरानी हैं जितना
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(१६) कि जैन मत, क्योंकि वौद्धमत वालोंने जैन मतसे निहायत सार्थक शब्द प्रास्रवको ले लिया है वह उसका प्रयोग करीव उसी मानोंमें करते हैं जैसा कि जैनी लोग। परन्तु उसके शब्दार्थमें नहीं, क्योंकि वह कर्म को सूक्ष्म माहा नहीं मानते हैं और आत्मा की सत्ताको नहीं मानते जिसमें कर्मोका पास्तव हो सके । संवरके स्थान पर वे असवक्खय ( प्रास्रवक्षय ) अर्थात् प्रास्त्रवका नाश, का व्यवहार करते हैं जिसको वह मग (मार्ग ) बताते हैं। यह प्रत्यक्ष है कि उनके यहां आस्रवके शब्दार्थका लोप हो गया है और इस लिये उन्होंने इस परिभापाको किसी ऐसे मतसे लिया होगा कि जिसमें उसके शब्दार्थ कायम थे। अर्थात् अन्य शब्दोंमें, जैनियोंसे । बौद्ध संवर शब्दका भी प्रयोग करते हैं जैसे शील-संवर (सदाचारके वमोजिव अपने मन वचन कायको काबू में रखना) और क्रिया रूपमें संवुत अर्थात् 'वशमें रक्खा ' का प्रयोग करते हैं जो ऐसे शब्द हैं जिनका ब्राह्मण लेखकों ने इस अर्थमे इस्तेमाल नहीं किया है, और इस कारण अनुमानतः जैन मतसे लिये गये हैं जहां वह अपने शब्दार्थमें पूर्णतया अपने भाव को प्रगट करते हैं। इस प्रकार एक ही युति इस वातके पुष्ट करनेके लिये उपयोगी है कि जैनियोंका कर्म सिद्धान्त उनके मतका आवश्यकीय और अखण्ड अंश है। और साथहीमें इस बातके सावित करनेके लिये भी कि जैन मत, वौद्ध मतके प्रारम्भमे बहुत ज्यादा प्राचीन है।
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( १७ )
जब हम हिन्दू मतको ओर इस वातके जांचनेके लिये दृष्टि: पात करते हैं कि चाया कर्म सिद्धान्त हिन्दु ऋपियोंकी खोज का नतीजा है तो हमको उसका एक अनिश्चित और अपूर्ण भाव हिन्दू धर्म के प्रारंभिक शास्त्रमें मिलता है। परिणाम यहां भी वही निकलता है अर्थात् यह कर्मसिद्धान्त हिन्दुओंने किसी अन्य धर्मसे लिया है, क्योकि यदि वह हिन्दू ऋषियोकी मेहनत का फल होता तो वह अपने रचयिताओं के हाथोंमें भी अपने उसी वैज्ञानिक ढंग पर होता जैसा कि वह निःसन्देह जैन मतमे पाया जाता है। कर्म, बन्धन, मुक्ति और निर्वाण के स्वरूप क्या है, यह एक ऐसा विषय है जिसकी स्त्रित हिन्दुओके विचार बहुत हो विरुद्ध और अवैज्ञानिक पाये जाते है। वास्तव में अथव संबर निजरा ऐसे में से हैं जिनसे ब्राह्मणोका मत करीब करीव विल्कुल ही अनमिन है बावजूद उपनिषदों के लेखकों की वुद्धमत्ता के जिन्होंने अपने पूर्वजोंक धर्मको दार्शनिक विचारोंकी पुष्ट नीव पर आधारित करने की कोशिश की । पस ! जो परिणाम निकालनेके अब हम अधिकारी हैं वह यह है कि हिन्दू मतने
aise forest किसी अन्य निकास से प्राप्त किया है जिस को श्रम बाज लोग उसीकी कृति मानते है ।
दूसरा प्रश्न यह है कि हिंदुओोने कर्मक सिद्धांतको कहां ने प्राप्त किया? वौद्धोंसे तो नहीं, क्योकि बौद्धमत पीछेको कायम हुआ । तब सिवाय जैनमत के और अन्य किसी मजदवसे नहीं, जो आवागमनके माननेवाले धर्मो में और सबसे प्राचीन धर्म है और
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जो इस ममलेको वैज्ञानिक ढग पर सिखानेवाला अकेला ही। धर्म है।
यह युक्तियां इस असत्य ख्यालको दूर करदेती हैं कि जैन मत हिंदू मतकी पुत्री है, परंतु चूंकि बेटोकी उत्पत्तिके विचार से बहुत प्रकाश इस व्याख्या पर पड़ सकता है इसलिये सब हम विधि अनुकूल वेटोंके निकासकी खोज लगायेंगे।
वर्तमान खोजने वेदोंको उस कालके मानिसक भावोका सग्रह माना है जब कि मनुष्य-वच्चेपनकी दशामें पोद्गलिक चमत्का. रोसे भयभीत रहता था और सब प्रकारको प्राकृतिक शक्तियों को देवी देवता मानकर उनके प्रसन्न करने के लिये दंडवत् करता था परन्तु उस समयकी हिन्दू सभ्यतासे, जो स्वयं वेदोंको प्रा. न्तरिक साक्षीसे स्पष्ट है यह ख्याल झूठा ठहरता है, क्योंकि पवित्र मन्त्रोके रचयिता किसी माने में भी प्रारंभिक अपक्क वृद्धि वाले मनुष्य या जङ्गलो न थे और उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह अग्नि और अन्य प्राकृतिक शक्तियोके समक्ष आश्चर्यवान् और भयभीत होकर दडवत् करते थे। एक योपियन लेखकके अनुसार:
'पार्योका देश अनेक विभिन्न जातियांका निवासस्थान था ओर बहुतसे प्रांतों में बंटा था। वेटोमे वहुतसे राजाओं के नाम लिखे हैं. .. .. पुरपति, शहरोंके हाकिमों चक्लेदारों, जमींदारोका जिक्र है। ........सुवसधारी लियों और अच्छे बने हुये वस्त्रोंका उल्लेख है। इन हवालोंसे
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( १६ ) 'और औरोले जिनमें मणि माणिकका जिक्र है यह नतीजा निकाला जा सक्ता है कि उस समयमें भी शारीरिक आभू. 'घणोंकी और अधिक ध्यान दिया जाता था। वस्त्र मनुमानतः रूई और उनके वनाए जाते थे, और वे करीब २ इसी प्रकारके थे जैसे वर्तमान काल में हैं। पगडीका उल्लेख है। सुई और तागेका वर्णन इस बातका सूचक है के सिले हुए कपडे नामालूम न थे ।.......लोहेसे सुरक्षित शहरो और दुर्गोका वर्णन है .... पीने वाले मादक पदार्थोका भी मंत्रो मे वर्णन है। करीव २ ऋग्वेदका एक कुल मंडल सोमरसकी प्रशंसासे भरा हुआ है । मदिरा या सुराका भी व्योहार था।
आर्योके मुख्य उद्यम संग्राम और कृपि थे । जो युद्ध करने मे सूर ठहरे उन्होंने धीरे २ प्रतिष्ठा और उच्च पदको प्राप्त किया, और उनके मुखिया राजा हो गये। जिन्होंने रणमें भाग नहीं लिया वह विश वा वैश्य या गृहस्थ कहलाये।"
वैदिक समय हिंदू समाजका वर्णन करते हुये डाक्टर विल्सन साहव लिखते हैं:
"यह वात कि आय्य लोग केवल एक जगलोमें फिरनेवाली जाति न थी बहुत स्पष्ट है। उनके शत्रुओंके भांति उनके गांव, शहर, और पशुशालायें थीं, और उनके पास बहुत तरहके यन्त उपयोगी सामिग्री, व सुखके साधन, दुरा. चारके उपकरण जो मनुष्य जातिकी एकत्रित मण्डलियों में
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( २० ) पाये जाते हैं, थे। वे पुनने व कातनेकी विधि भा जानत थ; जिस पर वे मुख्यतया निर्भर थे । वे लोहेले व्योहारसे भी अनभिज्ञ न थे और न लोहार, ठठेरे, बढ़ई व अन्य शिल्पकारोंके कार्योसे। वे कुल्हाडियोसे जङ्गलोके वृत्त काटते थे।
और अपनी गाड़ियोंको साफ व चिकना करनेके लिये रन्दे काममें लाते थे । युद्धके लिये जिसके वास्ते कभी २ वे शंखध्वनि परपकत्रित होते थे, वेवख्तर,गदा, कमान, तीर, वी तलवार या तबर और चक्र बनाते थे। उन्होने अपने धरेलू व्यवहार और देवोंकी पूजाके लिये कटोरे,कल्से, छोटेवड़े चम्चे बनाये थे । नाईका उद्यम करनेवालोंसे वे बाल कटवाते थे वे बहुमूल्य पाषाणों व जवाहिरातोका उपयोग करते थे, क्योंकि उनके पास सोनेकी वालियों, सोने के कटोरे और जवाहिरातकी मालायें थीं। उनके पास युद्ध के लिये रथ थे और साधारण व्योहारके लिये घोडो तथा वैलोकी गाड़ियां थीं। उनके पास जङ्गी घोडे थे और उनके वास्ते साईस भी थे। उनकी समाजमें खोजे हिजडे ) भी थे। ..... •माति २ की नावें वेड़े व जहाज भी वह लोग बनाते थे । वे अपने निवासस्थानोंसे कुछ दूर देशोंमें घ्यापार भी किया करते थे। कहीं २ इन मन्त्रों में समुद्रका भी उल्लेख है जिस तक चे अनुमानतः सिन्ध नदोके किनारे किनारे पहुंचे होंगे । उनमें से मनुष्योकी मण्डलियोका अर्थलाभके लिये जहाजों पर एकत्रित होकर जाना लिखा है
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(२१)
'एक सामुद्रिक सेनाकी चढ़ाई के बारेमें उल्लेख है कि वह वेड़े . के इव जानेके कारण निष्फल हुई।" - आर्यलोग अपने मनोविनोदके लिये नाचना, गाना तथा नाट्य करना जानते थे। वेदोंमे मृदंगका भी उल्लेख है और अधर्व वेढमें एक मंत्र विशेषतया मृदंगले लिये निर्मित है।
ऐसा वर्णन उन आर्योका है जो वेदोंके निर्माण समयमें हुये हैं। हम उन्हें असभ्य तभी कह सक्ते हैं जब हम उनके गुणों की ओरसे, जिनकी कि एक यथेष्ट सूची उपर्युक्त दोनों लेखोमें दी गई है, आंख मीच लें। तो फिर उस बच्चेपनकोसी उपासनाका जो अग्नि इन्द्र श्रादि देवताोकी की जाती थी, जिनके लिये ऋग्वेदके मन्त्र नियमित हैं, क्या अभिप्राय है ? यह बात अक्ल के विपरीत है कि ऐसे घडे बुद्धिमान् श्रादमियोंको, जैसे कि वेदोंको आन्तरगिक साक्षियोंसे हिन्दु सावित हुये हैं, यह मान ले किवह अक्ल के बारेमें इतने कमजोर थे कि आगको देखकर आश्चर्य वान और भयभीत हो जाते थे और यह कि उन्होने एक ऐसी प्राकृतिक शक्तिके प्रसन्नार्थ, जिसको वह स्वयं वडी ही आसानी से पैदा कर सक्ते थे, बहुतसे मजन बना डाले। वात यह है कि वेदोंके देवता प्राकृतिक शक्तियों के रूपक नहीं है बल्कि जीवशी आत्मिक शक्तियोंके । चूकि आत्माके स्वाभाविक गुणोका भजना आत्माको कर्मों की निद्रासे जगाने का एक मुख्य कारगा है। सानिये ऋग्वेदके ऋषि कवियोने बहुतसे मन्त्रोको श्रात्मक शक्तियोके लिये नियत करके बनाया। ताकि वह आत्मिक गुण
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(२२) ऐसे जीवमें जो उनके अर्थको, समझ कर, जाप करे, प्रगट हो जावें। उन्होंने जीवकी बहुतसी क्रियाओ-जैसे स्वासोच्छ्वासको भी अलं-- कृत कर डाला जैसा हम भागे दिखायेगे। मगर इस सवमें यह यात गर्मित है। कि ऋषियोको आत्मिक विद्याका प्रगाढ बोध था और यह सब वैदिक समयके आर्योकी उच्चसभ्यताके अनुकूल है। परन्तु जव कि ऋग्वेदके मन्त्रोके बनानेवालोमें आत्मिक ज्ञानके वोधका होना जरूरी मानना पड़ता है तो इन आत्मिक ज्ञानका अस्तित्व स्पट वैज्ञानिक ढंग पर होनाभी लाजमी मानना पडता है। लेकिन इस सत्य ज्ञानको हम अगर जैनमतमें नहीं तो और कहां दृढ़े, जो हिन्दुस्थानके और सब मतों में सबसे प्राचीन हैं। इससे यह नतीजा निकलता है कि जैन-दर्शन वास्तव में ऋग्वेद के पवित्र मंत्रोंकी, जिनके रचनेवालोने जीवकी विविध क्रियाओ
और स्वाभाविक आत्मिक गुणोको कल्पित व्यक्तित्व (देवी देव. ताओके ) रूपमें वांधा, नीव है।
वाकई यह ख्याल हो सकता है कि लांख्य दर्शन, न कि किसी दूसरे मतका कोई और शास्त्र ऋग्वेदकी नीव है क्योकि वेदोके काल्पनिक व्यक्तिगण एक ऐसे विचारके आधार पर हैं जो यथार्थमें सांख्य नहीं हैं तो भी वह सांख्यमतसे इतना मिलता है कि वह सांख्यमतसे बहुत कम विरुद्ध होगा। मगर सत्य यह है कि वर्तमानका साख्य दर्शन वेदों के बहुत पश्चात् कालका है वह वेदोके प्रमाणको मानता है और समयके लिहाजसे वेदोंके. पहलेका नहीं हो सका।
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(२३) इसलिये यह विदित होता है कि सांख्य दर्शनमे मिला हुआ कोई और मत रहा होगा जो गुप्त शिक्षाकी अस्पष्टना ( Inddefiniteness) और अनिश्चितपनसे भरा होगा । यह वात कि इस प्रकारका एक मत था जैन पुराणोमें पाई जाती है जिनके कथनानुसार अनभिक्ष लोग जैनधर्मके प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभ देव भगवान के समयहीमें नाना प्रकारकी धर्म शिक्षा संमार फैलाने लगे थे और स्वयम् पूज्य तीर्थकरका पोता मरीचि नामी जिसने परिषहजयमे असफलता प्राप्त होने के कारण अपने प्राप को योग क्रियामें ऋद्धियों सिद्धियोंके हेतु संलग्न किया था एक ऐसे धर्मका संस्थापक हो गया जो सांख्य और योग दर्शनोके मध्य दर्जेका था । इस प्रकार यह जान पड़ता है कि मरीचिका स्थापित धर्म जो पूज्य तीर्थकरोके मतले प्रान किये सत्यके अंशके आधार परगुप्त रहसवादके ढंगका निर्माण किया गया था, वेदोंकी अलंकृत देवमाला और पश्चातके पुराणोकी असली व प्रारम्भिक बुनियाद है।
इस कथनकी प्रबलता कि वेदोंकी कल्पित देवमाला जैन मतसे प्राप्त हुए सत्यके अंश पर निर्धारित है, प्रत्येक व्यकिको विदित हो जायगी, जो आवागवनके नियम और उसके प्राधारभूत कर्मसिद्धान्तके निकास पर विचार करेगा । यह बात कि यह नियम, वेदोके रचयिता या रचयितायोको
*मरीचि ऋषिका नाम वैदिक मंत्रोंके बनानेवाले ऋमि कवियोंमें ऋग्वेदमें वाकई दिया हुआ है।
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( २४ ) मालूम था, ऋग्वेदके उस वाक्यसे विदित है, जिसमें जीवके जल व वनस्पतिमें प्रवेश कर जानेका वर्णन है ( देखो डी० ए० मैक्यन्जी साहबका इन्डियन मिथ ऐन्ड लोज्यन्ड पृष्ट ११६ । और वैदिक गुप्त रहस्यमयी शिक्षाके आधारभूत सिद्धान्त के सामान्य स्वरूपसे भी विदित है।
अगर हम यास्कके साथ, जो वेदोंके टीकाकारोंमें बहुत प्रसिद्ध गुजरा है यद्यपि वह सबसे पहिला टीकाकार न था, सहमत होकर यह मानलें कि वेटोंमें तीन बडे देवता है, यानी अग्नि, जिसमा स्थान पृथ्वी है, वायु, या इन्द्र जिसका मुकाम वायु है, और सूर्य, जिसका स्थान प्राकाश है, तो यह वान महजहीमे समझमें आजायगी कि यह देवता अपने विभिन्न कर्तव्योंके कारण भिन्न भिन्न नामोंसे प्रसिद्ध है (देखो डब्लु० जे० क्लिकिन्न साहवकी हिन्दू मेथोलोजी पृष्ठ ६) हमने इन्द्रका असली स्वरूप 'दि की औफ नोलेज में बताया है और पश्चातमें उसका यहां भी वर्णन करेंगे, लेकिन सूर्य केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञता का चिह्न है और अग्निसे मतलव तपाग्निसे है। इस प्रकार वैदिक ऋषियों के तीन मुख्य देवता प्रात्माकी तोन दशाप्रोके चिन्ह है, सूर्य उसकी स्वाभाविक दिव्य छविका प्रकाशक है, इन्द्र उसको पुद्गल द्रव्यके स्वामी और भोगताके रूपमें दर्शाता है और अग्नि जो तपसे उत्पन्न होती है उसके पापोंके भस्म करने वाले गुणोंकी सूचक है। अग्निके तीन पांव तपके तीन आधारों, अर्थात् मन, वचन और कायको जाहिर करते हैं और
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( २५ ), उसके सात ७ हाथ सात प्रकारकी ऋद्धियोंके सूचक है। जो शरीरके सात मुख्य चक्रोंमें सुपुप्ति अवस्थामें पड़ी है। मेंढ़ा जो इस देवताका मसूत्र (प्रिय ) वाहन है, वाह्य आत्माका चिह्न है ( देखो दि की औफ नालेज, अध्याय आ४८) जिसका वलिदान अस्ती व्यक्तिकी उन्नतिके लिये करना होता है। लकडीके तख्ते जिनसे प्रति पैदा होती है वह पौलिक शरीर और द्रव्य मन हैं जो दोनो मोक्षके, पहिले मस्म ( आत्मासे पृथक् ) हो जाते हैं। चूंकि आत्माके शुद्ध परमात्मिक गुण तपस्या करनेसे अर्थात् तपके द्वारा प्रगट होते हैं, इसलिये अग्नि को देवताओका पुरोहित कहा गय है जिसके निमन्त्रण पर वह आते है । अन्ततः तपानि आत्माको पूर्वजोके स्थान (निर्वाण क्षेत्र) पर पहुंचाता है जहां वह सदैवके लिये शान्ति, ज्ञान
और आनन्दको भोगता है। ___ देवताओं के युवक पुरोहित अग्निका ऐसा स्वरूप है। यह कोई पुरुष नहीं है बल्कि एक काल्पनिक व्यक्ति है और काल्प"निक व्यक्ति भी आगका सूचक नहीं है जैसा कि वेदोंके योरोपियन अनुवाद करनेवालोंने ख्यान किया है वल्कि प्रात्माके कर्मों के भस्म करनेवाली अग्निका जो तपश्चरणमें प्रगट होती है। एक यही रूपक इस घातके जाहिर करनेके लिये यथेष्ट है कि जिस बुद्धिने उसको जन्म दिया वह प्रात्रागमन और कर्मके सिद्धांत से जरूर जानकारी रखती थी, और यह बात कि इस मसलेको (अलंकारकी भाषामें छिपाकर न्यान किया है इसकी सूचक
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है कि यानी इस शासनिक निक रचनेवालेने अपने प्रापको इन शिनाक गानिक ढग पर वन करने के योग्य नहीं समझा या कम वजन यह कि उन्को बिगनिक दंग पर खोजत्रने की इच्चा या वावश्यकता न यो इम नियइ नाविन है कि उनने इस सिद्धांतको किसी और जरियेले प्रान किया था, जो जैन मत बाहर दुनिया में कहीं नहीं मिलता है।
यहां यह बात भी कहने योग्य है कि हिन्दू मत सव जैन म और उसके नायक भगवान श्री ऋषमठेवजीको जिनने उन्होंने विन्गुका अवतार माना है, प्राचीनताको न्वीकार दिया है और कम उम्र विन्द्ध नहीं कहा गहपुरा
और निपुगण में श्री ऋषभदेवजीना बरीन है जिन्होंने उनके ऐतिहालेर व्यक्ति होनेको सरकी लीमाझे पर पहुंचा दिया है और जो उनकी मा नदेवी और उन पुर भरना, जिन के नाम पर हिन्दुलान भारतवर्ष नन्ताया. वर्णन करते हैं। भागवत पुगग भी पर नायरका वर्णन है और उनको जैन नतका संस्थापक मान है !
इस अन्तिम उल्लिखित पुगाके अनुसार अपमन्यजी विष्णु के अवतारामने नर्वे अवतार थे, और वामन, राम, कृष्ण, बुद्ध से, जिनको भी विप्राका अवतार माना है, पहिले दुरभव कि गमन अवतारका जो सिलसिन्नं पन्द्रहां है, ऋग्वेदमें स्ट रीतिने वर्णन है इस लिये. यह नतीजा निकलता है कि वह उस मन्त्रले जिसमें उनका वर्णन है. पहिले हुए होंगे और
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चूंकि श्री ऋषभदेवजी वामन औतारसे भी पूर्व हुए हैं। इस लिये वह ऋग्वेदके मन्त्रसे बहुत पहिले समय में गुजरे होंगे । इस प्रकार यह बात संशयरहित है कि वेटोंकी रचना वर्तमान कालमें जैन मतके स्थापन होने वहुत काल के पश्चात हुई।
हिन्दु लोग स्वभावतः वेदोको ईश्वरेको कृति मानते हैं परन्तु उसके मन्त्रोसे यह बात अप्रमाणित पाई जाती है, यथार्थ भावमे सत्यज्ञानका प्रकाश दाही तरहसे होता है (अ) या तो श्रात्मा स्वयम् मान द्वारा सत्यको जान लेता है या (ब) सर्वन गुरु (तीर्थकर ) निर्वाण प्राप्तिक पहिले सत्य साना दूसरो को उपदेश देने है । वेट इस दूसरी संज्ञामें आते हैं क्यो कि उनको श्रुति, जिसका अर्थ 'तुना गया है' है, कहते हैं । इस लिये यह आवश्यकीय हुआ कि हम अंसली श्रुति या शास्त्रके
* यह वात कि वेदोंका भाव गुप्त है इस प्रमाणकी सत्यतामे बाधा नहीं डालती है क्योंकि रामायण और महाभारतको पद्यों और पुराणों की भाति वेदोंके रहस्यमयी काल्पनिक काजियों अलकारों और कथानकोके बनाने में, इतिहासके मशहूर मारुफ, वाक्यात और घटनाओं का प्रयोग किया गया है । जैनपुराणोंसे यह सावित है कि श्रीऋषभदेव भगवान ओर विष्णु ऋपि, जो वामन अवतारके नामसे प्रसिद्ध हुये, इस कारणले कि उन्होंने एक दफा तपस्यासे प्राप्त हुई बैंक्रियिक ऋद्धि द्वारा अपने शारीरको योनेके कदका बनाकर और फिर पश्चातको अविश्वसनीय विस्तार दिवाकर कुछ साधुओंका कष्ट दूर किया था, दोनों ऐतिहासिक व्यक्ति थे ।
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(२८) निकाशका स्वरूप दर्याफ्त करें। इस लिलसिलेमें पहिली बात जो जानने योग्य है वह यह है कि वचन चाहे वह किसी रूपमें हो और चाहे वह इरादतन बोला गया हो या नहीं, एक प्रकार की पौद्गलिक किया (अान्दोलन ) है जो मानसिक या जानुल्ल (कपाय ) वृत्तियोके प्रभावके ( एक प्रकारके ) सूक्ष्म माद्दे पर पड़नेसे पैदा होती है। यह क्रियायें ( आन्दोलन) फिर बाहरी हवामें प्रवेश करती है जिसके द्वारा वह सुनने वालोक कान तक पहुंच जाती है। मनकी वृत्तियां जो बचन की उत्पत्तिमें उपर्युक्त मुख्य भाग लेती है सूक्ष्म आन्दोलन है जो प्रात्साके दो भीतरी शरीरोमे उत्पन्न होती है और जो उन शरीरोके अभावमे असम्भव है। इसलिये जिस किसी गत्मा में पौद्गलिक लेश नहीं रहा है उसके लिये वचन असम्भव है इससे यह परिणाम निकलता है कि शरीरहित श्रात्मा अर्थात् सामान्य रीतिले शुद्ध जीव, लोगोंसे वाक्य द्वारा बचत व्यवहार नहीं कर सक्ता है। इसके अतिरिक्त चूकि पुद्गलके वंधतसे वाफई रूपले मुक्ति उसी समय मुमकिन है कि जब स्व-प्रात्मध्यान पूर्णताको प्राप्त हो इसलिये शुद्ध आत्माके लिये असंभव है कि वह दुसरेके मामिलातमे दिलचस्पी ले । अतः यह निश्चित है कि युतिका निकास. सिद्धारमा, जैसा कि धर्म“शास्त्रोका रचयिता ईश्वर कहा जाता है, नहीं हो सकता ।
'यह बात भी याद रखने योग्य है कि सत्य देववाणी स्पष्ट भावमे ही हो 'सक्ती है क्योंकि तीर्थकर भगवानको सत्यके
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(२६) छिपानेकी कोई आवश्यकता नहीं है और इस वजहसे उनमें यह इच्छा नहीं मानी जा सक्ती है कि वह ऐसी भाषाका प्रयोग करें जिसके अर्थमें भूल पड़े अर्थात् जो मटकानेबाली हो । देव. वाणी बड़े पुजारियों या पुरोहितों का रहस्यमय कवियों या सन्तों द्वारा नहीं हो सक्ती है। इस विषयमें विविध मतोंके शास्त्रोंका पढ़ना यथेष्ट रीतिसे हमको इस बात के मापनेपर वाध्य कर देगा कि वह वाक्य या हुक्म या श्राज्ञा जो ईश्वरीय कही जाती है कभी २ उसी शालके किसी दुसरे वायसे खंडित हो जाती है और बहुधा किसी दूसरे मतकी आमासे । यह दरास्ल । ईश्वरीय प्रेरणा नहीं है बल्कि किसी विचार में उन्मादके दर्जे नक मुग्ध हो जाना है और इसका भेट यह है कि पुरोहित या भविष्यवाणी कहनेवाला व्यक्ति अपने आपको रोजा, दान, भनि प्रादिके कानान्तरित अभ्यासमे एक प्रकारको अनियमित समाधि अवस्थामें प्रवेश करने की आदत डाल लेता है जिसमें उसके प्रात्माकी कुछ शक्तियां थोडी या बहुत प्रगट हो जाती हैं । लोइनको ईश्वरीय प्रकाशका चिन्ह समझ लेने हैं और सब प्रकारको वाहियात धोर कपोल कति सम्मोतयां उनके प्राचार पर गढ़ डालते हैं। मगर यथाथ यह है कि विवेक करनेवाली बुद्धि के कार्यहीन हो जाने के कारण मनमे उपस्थित विचारों से जो सबसे अधिक प्रबल (मव) होता है उसका भविष्यत् वक्ताके चित्र क्षेत्र पर शासन हो जाता है जिससे उसकी वाणी उसके व्यक्तिगत विचारों
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. (३० ) और पक्षपातसे रंग जाती है, तथापि वह यही मानता है कि - उसकी क्रिया (वाक्य) ईश्वरीय प्रवेशका नतीजा है। एक
पोलिनेशिश भविष्यवक्ताके ईश्वरीय प्रवेशका निम्नलिखित • वर्णन पढ़ने पर लाभदायक ठहरेगा। (देखो टी० एच० हक्सली साहबकी बनाई हुई साइन्स एन्ड होयूट्रडीशन, पृष्ठ ३२४):, ". . ... एक सुअर मारा गया और पकाकर रातको रक्खा
गया और दूसरे दिन केलों और याम (जिमीकन्द के सदश 'पल ) और टांगन जातिको निजी सुरा 'कावा' की ' सामग्रीके साथ ( जो.उनको बहुत प्रिय है ) पादरी (स्याने)
के पास लाया गया। फिर सघ लोग गेरा बांध कर जैसे मामूली कावा पीने के लिये बैठा करते थे, वैठ गये, परन्तु पादरी, ईश्वरका प्रतिरूपक होनेके कारण, सबसे उच्च स्थान “पर बैठा जब कि टांगियोता नार नम्रतापूर्वक ईश्वर के
प्रसन्नार्थ घेरेके बाहर बैठाइन सबके बैठते ही पादरीकी प्रेरित : अवस्था मानीजानी है क्योकि उस ही क्षणसे ईश्वरका प्रवेश
उसमे माना गया है वह बहुत देर तक चुपचाप हाथों को अपने * सामने पडे हुये बैठा रहता है, उनकी अखि नीचेकी ओर ; होती हैं और वह विल्कुन शान्त, क्रियारहित होना है उससमय
जव क भाजन वटता है और कावा तैयार होता है कभी २ मेतावूल लोग उससे पूछ ताछ आरम्भ करते हैं । बाज दफा चह उत्तर देता है और बाज दफ़ा नहीं मगर दोनोंही दशा: ओंमें उसको विन्द रहती हैं। -बहुधा वह खाने और
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( ३१ )
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शरावके वन्द होने तक एक शब्द भी मुहसे नहीं निका जता है । जब वह बोलता है तो वह साधारण रीतिसे धीमी और वहुत चली हुई आवाजमें बोलना आरम्भ करता है जो धीरे धीरे असती स्वाभाविक पित्र ( आवाज) तक पहुंच जाती है और कभी कभी उसले उच्च स्वर भी हो जाता है । जो कुछ वह कहता है वह सब ईश्वरीय कथन समझा जाता है और इसी लिये वह उत्तम पुरुष सर्वनाम में बोलता है, मानो वह स्वयं ईश्वर है । यह सब साधारण रीतिले विना किसी आन्तरिक माकुलता या - शारीरिक हिलन जुलनके होता है, लेकिन कभी उसका मुख भया. -नक रूप धारण कर लेता है और भड़क उठने मरीखा -होता है और उसका तमाम शरीर मानसिक शोकसे कम्पायमान हो जाता है, उस पर कंपकंपी चढ़ जाती है, उसके मत्ये पर पसीना आ जाता है, उसके होठ काले पढ कर एंठ जाते है, ग्रन्नमे उसकी आंखो मे आंसुओं की धा राये चहने लगती है गम्भीर कषायो से उनकी छाती उभरने लगनी है, उसकी आवाज रुक जाती है। धीरे धीरे यह हालत दूर हो जाती हैं। इस वेगळे पहिले
N
·
और उसके उपरान्त
जितना चार भूखे
J
वह वहुधा इतना खाना खा जाता पुरुष साधारणतया खा सके हैं। "
है
इस उदाहरण पर विचार करते हुए, प्रोफेसर डी० एच०
इक्ली साहव फरमाते हैं
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"यह अदभुत घटनायें जो ऐमे शन्दोमें वर्णन की गई है जिनको पढ़ कर हर मनुष्य जो हम लोगोंकी विलक्षण मानसिक अवस्थाघोंसे जानकारी रखता है, तुरन्त उनको सत्य मान लेगा. रनडोरकी भविष्यवक्ता स्त्री की कथा पर बहुत बड़ी रोशनी डालती है। जैसा कि इस स्त्रीको कथामें पाया है वैसे यहां भी भूत या देवका श्राना ...... .. वाणीका बदल जाना व उत्तम पुरुष सर्वनाममें बोलना पाया जाता है। अभाग्यवश (नोरकी चिल्लीके अतिरिक्त ) पनडोरकी उस पैगम्बरिया ( भविष्यद्वका स्त्री) के दशाका कुछ वर्णन नहीं है । परन्तु जो कुछ हमको दूसरे जरायोसे ( उदाहरण के तौर पर १--समवेल अध्याय १०-प्रायन २० ता २४ ) इसराइलों में ईश्वरी प्रवेशकी सहचर शारीरिक अवस्याओस हाल मालम होता है उसकी ठीक समानता पालीनेशियाके भविष्यदवक्ताओंकी इस कथा और दूसरी कथाओमें पाई जाता है।"
प्रकारके दृश्य मीरासाहब के मक्वर पर हिन्दुस्तान मे अमरोहाके स्थान पर देखे जासक्ते हैं और माधारण स्थाने भी इस प्रकारके कुछ न कुछ कृत्य विना विशेष परि श्रमके दिखा सक्त हैं। जैसा कि हमने ऊपर कहा है यह ईश्वरीय प्रवेश नहीं है परन्तु मन पर विचारके विशेष प्रभाव का परिणाम है। श्रुतिके सच्चे लक्षण रत्नकरण्डश्रावकाचार में वर्णन किये गये हैं और संक्षेपसे इस प्रकार है
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( ३३ )
(१) वह सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान द्वारा उत्पन्न होती है। (२) वह तर्क वितर्क किसी प्रकार खण्डन नहीं हो सक्की, अर्थात् न्याय ( मन्तक ) उसका विरोध नहीं
कर सका ।
( ३ ) वह प्रत्यक्ष, अनुमान और शसे ( साक्षी ) मुताविक होती है।
(४) वह सर्व जीवों की हितकारी होती है, अर्थात् वह किसी प्रकार भी किसी प्राणोके दुःख या कष्टका कारण नहीं हो सकी - जानवरोको भी दुःख और कटका नहीं ।
( ५ ) वह वस्तु के यथार्थ स्वरूपकी सूचक है। और:( ६ ) उसमें धार्मिक विषयमें भूत और भ्रम दूर करने की योग्यता होती है ।
सबै शास्त्रोके उपर्युक्त लक्षणोंको ध्यान में रखते हुए यह एक निगाह में साफ होजाता है कि वेदों के बारेमें यह दावा करना कि वह अनि होनेके कारण ईश्वरीय वाक्य है, समझ दार अकलके लिये नामुमकिन है । अगर्ने यह बात पहिले पहिल नागवार मालूम होती है तो भी उससे गुरेज़ नामुमकिन है, क्योंकि स्वयं हिन्दुओंने अपने वेदोंसे कई बानोंमें विरोध कर लिया है। उदाहरण के तौर पर वह इन्द्र, मित्र, वरुणा व अन्य
वैदिक देवताओं में से बहुतों की अब पूजा उपासना नहीं करते है इस विरुद्धताका क्या अभिप्राय हो सका है ? अगर यह नहीं कि
३
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( ३४ )
वैदिक देवता भोका वास्तविक भाव कि उनका व्यक्तित्व केवल काल्पनिक है, लोगोंको मालूम हो गया और इस कारण उनकी उपासनाका प्रचलित रहना असम्भव पाया गया। इस बात से भी कि वर्तमान हिन्दु प्रथा वेदोंमें कहे हुए जानवरों और मनुब्योके वलिदानको पाशविक और नीच कर्म समझती है यही परिणाम उद्धृत होता है। वास्तवमें वलिदान के नियमके सम्बंध में पोछेके लेखकों ने शास्त्रीय वाक्यका भाव बदल कर गूढ़ अर्थ लगाने का प्रयत्न किया है, परन्तु प्राचीन रश्मो और रवाओं से जो आज तक चले आये हैं यह बात स्पष्ट है कि आरम्भमें उस का अर्थ ऐसा न था । यह बात कि उसके रचयिता मांसभक्षी ऋषी ही होंगे विल्कुल प्रत्यक्ष है, क्योंकि कोई सबा शुद्ध आहारी साधु कभी ख्याल में भी अपने लेखको रक्त व मांसके अलंकारसे से, जिनके केवल अर्थही के बारेमें भ्रम नही होसता है वरि जो उसकी स्वाभाविक मनोवृत्तिको भो अवश्य घृणित मालूम होंगे, गन्दा नहीं बनायगा। इस लिये वेदोंका वह प्रङ्ग, जिस में जीवोंके बलिदानका वर्णन है उन व्यक्तियका बनाया हुआ नहीं हो सक्ता है जो तप (अग्नि) को मुक्तिका कारण जानते थे, वल्कि वह पीछेसे किसी बुरे प्रभाव से शामिल हुआ होगा ।
हिन्दूमत के विकासका बहुत स्पष्टता के साथ उपर्युक युक्तियोंके लिहाज से जल्द पता चल सकता है । अलंकारिक शिक्षाके जन्मदाता ऋषियोंकी कल्पना शक्तिमें आत्मिक पूर्णता के प्राप्ति के उपाय के तौर पर, जो उसके दैविक गुणों की प्रशंसा
(
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( ३५ ) करनेसे प्राप्त होती है, उत्पन्न होकर वह पश्चास्की सन्तानों में एक सुन्दर भजनोंके संग्रहके समान चला आया, जो कुछ समय व्यतीत होने पर श्रुतिके तौर पर माने गये, और फिर उनके भावार्थके भुला दिये जाने पर एक नये मतके वीज (मूल ) बन गये। सबसे प्राचीन मन्त्र अनुमानतः वे थे जो अव ऋगवेदमे शामिल है, सिवाय उनके जो जीवोंको बलिदान की आज्ञा देते हैं या किसी प्रकार उसका अनुमोदन करते है। उनका असली अर्थ अनुमानतः, उनके रचनेके समयमें घहुतसे मनुष्योंको मालूम था और चूंकि वह केवल लेखकी कुशलताके लिहाजसे ही सुन्दर नहीं गिने गये थे वरन् आत्मिक शुद्धताकी प्राप्तिके हेतु भी मुख्य कारण थे, इसलिये वह तुरन्त कंठस्थ कर लिये गये थे, और नित्य प्रति पूजापाठमें उनका व्यवहार रहस्यमयी शिक्षामें लवलीन ऋषि कवियों द्वारा होता था। समय के साथ उनकी प्रतिष्ठाके बढ़ते रहनेसे कुछ काल पश्चात् वह श्रुतिकी भांति पूर्णतया पूज्य माने गये और रहस्यवादको उल्झन में पड़ कर हर्ष माननेवाली रुझान (बुद्धि ) के द्वारा उनमे सव प्रकारके अदभुत गुण माने गये। इस कारण पश्चात् के लोगों ने उन मंत्रोंको, उनके भावार्थको, पूर्णतया न समझे हुये भी भाक्तपूर्वक स्वीकार किया, और इनको अपने धर्मका ईश्वरीय प्रमाण माना । ईश्वरकृत शास्त्रकी भांति कायम होकर पूज्य मन्त्रोंका संग्रह रहस्यवादका माधार हो गया और समय २ पर उसमें हेर फेर और वृद्धि हुई। सबसे पहली वृद्धि जो उसमें
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की गई, वह सब संबंध रखनेवालोके लिये किसी बुरे प्रभाव वश हुई, क्योंकि जय कि उसका फल उन निरपराध प्राणियों के लिये, जिनका वलिदान देवतानोको देना उस समय नियत टुमा, दुख और कष्ट था। उमने अलि चढ़ानेवाले और उन सबको जो धर्मके नाम पर प्राणिघात करने में तत्पर हुये, दुर्गति और नरकगामी ठहराया, और अन्नतः असली और सत्यवेद पो प्रतिष्ठाको भी गौरवहीन कर दिया।
लेकिन अधिक समझवाले मनुष्य जीव ही इस बातको आन गये कि नलिदानका प्रभाव वास्तविक नहीं वरन् असत्य है, और उन्होंने इस वातको निश्चित कर लिया कि रक्तका बहाना नपनी या बलि-प्राणीको मुचिका कारण कमी नहीं हो सक्ता । परन्तु इस प्रथाको जड़े फैल गई थीं और एक दिनमें नष्ट नहीं हो सक्ती थों। यह बहुत समय प्रतीत हो जानेके पश्चात् हुमा कि वजिदानकी प्रथाके विरोध जो लहर उठी थी उसमें इतनी शक्ति पैदा हो गई कि शास्त्रीय लेखका बदलना अावश्यकाय समझा गया। लेकिन यह कोई सहज वात नहीं थी क्योंकियदि हम एक श्लोकके वारेमें भीशास्त्रीय अखण्ड सत्यताको अस्वीकार कर दें तो रहस्यवादके सिद्धान्तोकी, जिनको प्राक्षाका प्रभाव ईश्वरीय वाक्य पर निर्भर है, नीव विल्कुल खोखती हो जाती है। इसलिये वेदों में कांट छांट करना असम्भव था, और
* देसो फुट नोट न १ पुस्तकके भाखीरमें।
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( ३७ ) चुद्धिमान सुधारकको चिन्हादकी, जो कांटछांटको छोड कर एक ही उपाय ईश्वरीय प्रमाण संवधी आशामे सुधार करनेका है सहायता लेनी पड़ी। चुनांचे एक चिन्हाधिन यानी भावार्थका प्राधार वेदवाक्यके अर्थके हेतु दृढ़ा गया, और मुख्य जातिके चलि पशुओंके लक्षणों और उनके नामोंका युक्तिस मावोंके गुप्ताथ कायम करने के लिये प्रयोग किया गया। इस प्रकार मेढ़ा, वकरा, व सांड जो बलि पशुप्रो नीन मुख्य जातिके जीव हैं, आत्माकी कुछ घातक शक्तियोंके, जिनका नाश करना आत्मिक शुद्धताको वृद्धि व मोक्षक हेतु श्रावश्यकीय है, चिन्ह ठहराये गए । यह युक्ति सफल हुई, क्योकि एक पोर तो उसने वेदोंकी आज्ञाको ईश्वरीय पाक्यकी भांति अखण्डित छोडा और दूसरी ओर बलिदानकी अमानुपिक प्रथाको बन्द कर दिया और मनुष्यों के विचारोंको इस विषय में लत्य मार्गकी ओर लगा दिया।
लेकिन पापके वीजम जो बोया गया था इतना अधिक फूटकर फैलने शक्ति थी कि वह वलिदान सिद्धान्तके भावार्थ के वदल जानेसे नष्ट न हो सकी। क्योकि तमाम गुप्त शिक्षावाले मोने, जो जान पडता है कि धार्मिक विषयों में सदैव भारतवर्ष में उपस्थित रहस्यवादी मूल शिक्षा पर चलते थे, (यहा उस समय भारतवर्षकी सीमायें कितनी क्यो न हों ) वलिके खून
** देखो 'दि की आफ नालेज' अध्याय आठ ८ - देखो दि फाउटेन ह्यड औफ रिलीजन वा गंगाप्रसाद एम. ए. कृत।
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(३८) द्वारा स्वर्गम जा पहुंचनेकी नवीन पृथाको स्वीकार कर लिया था और वह सहजमेंही एक ऐसी रीतिके छोड़नेके लिये, जिसमें उनको प्रिय भोजन अर्थात् जानवरोका माँस खानेकी करीब २ माफ तौरसे माझा थी, प्रस्तुत नहीं किये जा सके । इस समय हमारे लिये जव कि इतना दीर्घकाल गुजर चुका है, यह सदैव असम्भव नहीं है कि हम प्रवृत्ति और निवृत्तिकी लहरोंका, जो हिन्दुओके विचारों के परिवर्तनसे वाय संसारमें उत्पन्न हुई, पता लगा सकें, परन्तु यह भी नहीं है कि हमारे पास वास्तव में उसके सदृश कोई सबल उदाहरण न हो। यह उदाहरण यहदियोके मतकी शिक्षामें पाया जाता है जिसके वलिदान संबंधी विचारों में जान पड़ता है कि हिन्दुओके भांति परिवर्तन हुये। १ सैमवेल अध्याय १५ श्रायात २२:
"क्या खुदावन्दको सोखतनी कुरवानियो और जवीहों में उतनी ही खुशी होती है जितनी कि खुदावन्दकी आवाजकी सुनवाईमे ? देख! पाशा पालन करना वलिदान करनेसे अच्छा है और शुनवा होना मेंढोंकी चरवीसे।"
एक प्रचलित रीतिका प्रवल खंडन है। शास्त्रके भावार्थके बदलनेका प्रयत इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है:"मैं तेरे घरसे कोई वैल नहीं लूंगा और न तेरे वाडेमेंसे चकरा......... अगर मैं भूखा होता तो तुझसे न कहता ... .....क्या मैं बैलोंका मांस खाऊंगा और चकरोंका खून 'पीऊंगा?ईश्वरको धन्यवाद दे और अपने प्राणोंको परमा
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स्माके समक्ष पूरा कर" (जदर ५. आयात ६ ता २५ ) जरोमिया नवो इस विचारको और पुष्टि करता है और इस प्रकार ईश्वरीय वाक्य घतलाता है कि:.......: मैंने तुम्हारे पुरुषाओंको नहीं कहा, न उनको आशा
दी ....... •भुनी हुई बलि और जवीहोके लिये, परन्तु इस बातकी मैंने उनको आशा दी कि मेरी वातको सुनो......
और तुम उन सव रीतियों पर चलो जो कि मैंने तुमको बतलायी है ताकि तुम्हारे लिये लाभदायक हो" (जरीमिया नवीकी किताव अध्याय ७ श्रायात २१ ता २३)।
इन वाक्यों में हिन्दूमतके परिवर्तनसे इतनी गहरी सहशता पाई जाती है कि यह आकस्मिक बात नहीं हो सकती और इस में उसी कर्ताका हाथ पाया जाता है जिसको प्रोफेसर ड्वायस्सनने वृहदारययको बलिदान सिद्धांतको धार्मिक भावमें परिधर्तन करते हुये पाया ( देखो दी सिस्टम श्राफ घेदान्त पृष्ठ ८) परन्तु यह कुरीति अव तक चली आई है। परिणाम यह है कि हिन्दूमत अपनी ही सन्तानको जिसका एक दूरके देशमें पालन पोषण दुपा है अपने ही सन्मुख उपस्थित और अपनी आक्षाका उल्लंघन करते हुये पाता है, और अपने ही शास्त्रोको गोमेधके विषयमें जो अब पूर्णतया घृणित हो गया है अपने विरोधियों के सिद्धांतोकी पुष्टि करते हुये पाता है। कुछ थोड़ा समय हुआ स्वामी दयानन्द सरस्वती संस्थापक आर्यसमाजने जो व्याक. रणके मच्छेशाता थे, इस बातसे एककलम (एकदम ) इन्कार
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(४०)
करके कि वेदों में पशु बधका वर्णन है और योरुपियन विद्वानों के अनुवादोंकी सत्यताको भी अस्वीकार करके इस कठिनाईसे चचना चाहा। परन्तु इस प्रकारका प्रयत्न स्वयम् साती देनेवाली वानो की उपस्थितिमें कारगर नहीं हुआ करता है । प्राचीन प्रचलित गीति रिवाज स्वयं इस बातका प्रमाण है कि वेदोंके अनुयायो वलिदान करते थे । प्राज भी उम्र वर्गीके हिन्दू पाये जाते है जो पशुप्रका बलिदान करते हैं और जिनमे ब्राह्मण यज्ञ करनेवाले (होता) होते हैं । यह बात खुल्लमखुल्ला शाक भोजी मनमे सहन नहीं की जा सकती थी योर इस अमरको सिद्ध करती है कि वर्तमान समयले पूर्वकालमें बलिदानकी रस्म अधिक प्रचलित थी । हिन्दूओ और ब्राह्मणोंमें मांम का खाना कोई असाधारण बात नहीं है, और वह स्वतः ही प्रामाणिक वान है । यह बात नहीं है कि वह लोग मासको छिपा कर खाने है, वरन् जो उसको जाते हैं, वह उसके खाने के कारगा किसी प्रशमे भी अन्य हिन्दुधोंले क्स नहीं समझे जाते हैं, गोकि वहुतमे उसको अपनी इच्छा मे नहीं भी खाते हैं । इस प्रकार गत समयमें सर्व साधारण के भोज्यके तौर पर मांसका स्वीकार किया जाना असम्भव था । मुख्यतया सदाचारके नियमोके कडे पालन और सब प्रकारके हिन्दुओ के जाति व्यवहार के लिहाज से सिवाय उस हालत के कि वह किसी पूज्य आशा द्वारा जो यज्ञशास्त्रोंके अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकनो, प्रचलित किया गया हो। हम इसलिये नतीजा निकालते हैं कि भार्य
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( ४१) समाजका निर्वाचित अर्थ वेढोंका सवा अर्थ नहीं है। जहां तक कि अंग्रेजी अनुवादोंका संबन्ध है यह करीन कयास नहीं है कि चह विल्कुल ही असत्य हों, कारगा कि वे भी प्रसिद्ध हिन्दु वृत्तिकारो आधार पर बने हैं और न सर्व साधारण हिन्दुोंने ही उनको असत्य माना है।
हिन्दूमत के विकामनो भोर ध्यान देते हुये हमारे निगायोंकी शुद्धता प्रत्येक व्यक्तिको विदित हो जावेगी जो निम्नलिखित डाक्यों पर पूरी तरहसे विचार करेगा।
(१) शामे वेद पशु व पुरुष बलिदानका प्रचार करने हैं ।
१२) हिन्दू लोग अब गऊ और मनुष्यके वलिदानके सख्न विरोधी है जो दोनों उनके पूज्य शास्त्रोंमें गोमेध व पुरुषमेधक पवित्र नामोंसे प्रसिद्ध हैं।
(३) अमेघ श्रव विपुल बन्द हो गया है और अज. मेधका भी यही हाल है गोकि वरेका मांस अरमी कुल मूद विश्वासी मनुष्यो द्वारा देवी देवताओं के प्रमन्नार्थ अर्माण किया जाता है।
(४) यासंबन्धी मन अभी तक हिन्दू शास्त्रोंमे शामिल है गोकि यह साफ है कि उनका भाव शब्दाव वढल कर भावार्थ में लगा दिया गया है।
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• देखो फुट नोट नं. २ पुस्तक अतमें ।
देखो फुट नोट नं. ३ पुस्तककै अतमें ।
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( ४२ ) (५) इन मंत्रोकी भापा किसी सिद्ध भगवान (श्वर) कृत नहीं हो सकती और न शुद्धाहारी (शाकमक्षी) मृपियोंकी हो सकती है क्योंकि अग्रिम (ईश्वर) तो किसी पापमयी प्रथा की स्पष्ट या अस्पष्ट तौरसे पुष्टि नहीं करेगा और न मममसलने वाली भाषाका प्रयोग करेगा और अन्तिम मांस और रक्तके अलंकारोकी रचना कभी नहीं करेंगे।
इन वाक्योंके साथ यह वातमी ध्यान रखनी चाहिये कि वेदोंकी भापाका अर्थ इसी प्रकार समझमें पा सका है कि उसके शब्दोके वाह्य पथके नीचे छिपा हुआ एक गुप्त ज्ञानका सिद्धान्त माना जावे, गोकि हम तमाम रूपक अलङ्कारोंके भावको जिनका ऋपियोंने पविन मन्त्रोमें प्रयोग किया है, न समझ पावें। बहुतसे रूपक तो पुराणों में दिये हुरहवा नोंकी सहायतासे समझमें आ जाते है, और यद्यपि किसी पश्चातके प्रन्य की व्याख्याओंका उसमे पहिलो ग्रन्थमे पढ़ना न्यायसंगत नहीं है तथापि इस वातसे इनकार नहीं किया जा सक्ता है कि पुराणोंकी कथायें वेदोके देवी देवतामोका सुविस्तर वर्णन
* देखो:
"जैसा कि निम्न लेखसे विदित है, पुराणोको भी..."यथार्यमें वेदों से पूर्वका कहा जा सका है:
प्रथमं सर्वशास्त्राणा पुराणं ब्रह्मणा श्रुतम् , अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिमृताः । अगानि धर्मशास्त्रं च व्रतानि नियमास्तथा ॥
ब्रह्माण्डपुराणम् ॥"
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(४३) है। यह बात भी ध्यानमें रखने के योग्य है कि इन्द्र वरुण आदिक वैदिक देवताओंकी पूजाका बन्द हो जाना इसकी दलील है कि यह लोगोको उनके मुख्य स्वरूपके पता लग जानेके कारण हुश्रा, इसलिये जय लोगोंको यह मालूम होगया कि वह केवल मानसिक कल्पनाके व्यक्तिगत रूपक हैं तो उन्होंने उस पूजाको जो उनके प्रसन्नार्थ किया करते थे, बन्द कर दिया । अनुमानतः वेदोंके और वैदिक देवताओंके गुप्तार्थकी कुञ्जी कभी बिल्कुल नष्ट नहीं हो गई थी, सेवक गण, साधारण ब्राह्मगा और साधु भी चाहे कितने ही उससे अनभित्र क्यों न रहे हों। बुद्धिमत्ताकी लहरके अन्तमें जो ब्राह्मणों के समयके वलिदानकी निवृ. त्तिके पश्चात् उठी, मालूम होता है इस कुञ्जीका बहुत अधिक प्रयोग किया गया । इस प्रकार महाभारत और रामायण की पद्यों और पुराणोंके रचे जानेके समयमें देवी देवता
ओंका एक बड़ा समूह जिसकी संख्या ३३ करोड है उस प्रारम्भिक ओर सीमित देवी देवताओंके कुटुम्पमें से जिनका वर्णन है, वेदोमे है, निकल पड़ा । इनके अतिरिक्त कुछ और काल्पनिक व्यक्तियो जैसे कृष्णकीरचनाभी हिंदू पुराणों के रचयि
(दि परमानेन्ट हिस्ट्री ओफ भारतवर्ष जिल्द ; २. पृ. ८)
अर्थ:-"ब्रह्माने सव शास्त्रोंमें सबसे पहिले पुराणको सुनाया और तत्पधात् उनके मुखसे वेद, मग, धर्म, शास्त्र, व्रत और नियम निकले।"
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( ४४ ) तामोंने रच डाली। मगर यह कहना न्याययुक्त होगा कि यद्यपि रामायण, महाभारत और पुराणोंने लचे ऐतिहासिक 'घटनाओंका रहस्यपूर्ण और मलंकृत * पोशाक पहना कर इतिहासमें बडी गडबड उत्पन्न कर दो तो भी उसके साथ ही उन्होंने अपने देवताओं के कल्पितस्वरूपको दिखा कर धार्मिक उपासनामें बहुत कुछ सुधार किया । यद्यपि यह सुधार निस्सन्देह गम्भीर था तथापि यह अपने उद्देश्यकी पूर्तिमें असफल रहा, क्योकि केवल कल्पित देवतासमूहकी रवानगीने अर्ध काल्पनिक अर्ध ऐतिहासिक व्यक्तियोशी पूजा. के लिये द्वार खोल दिया, और साथमे ही कुछ नबीम समय के मगर प्राचीन प्रकारके देवतागण भी पूजा और प्रतिष्टाके “पात्र माने गये। राम और कृष्ण प्रथम प्रकारके और गिव पिछले प्रकारके देवता है। इनमें से वेटोमे किलीका भी वर्णन नहीं है जो एक ऐसी वात है जिससे योरुपियन समालोचकों की इस रायसी पुष्टि होती है कि हिन्दुओंने अपने देवताओ को बदल दिया है। मगर इस दोपके हिन्दू इतने अपराधी नहीं है जितमा वह रहस्यवादका रुझान है जो उनके मतमें व्याप्त है क्योंकि जहां कुल धर्म शिक्षा ऐसी भाषामें दी गई है हिजिसका शब्दार्थ तो कुछ और है और भावार्थ कुछ और ही "है, वहां मनुष्य चक्कर में पड सक्ते है और क्षमाके पात्र हैं अगर उनसे भूल हो जावे। उपनिषदोंने इस रहस्य व अन्धकारमई
* देखो फुट वोट नं. ४ पुस्तकके अन्तमें ।
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( ४५ ) अनिश्चितपनको अपने धर्मसे दूर करनेकी कोशिश की और अज्ञान और मिथ्या विश्वास के प्रन्ध कूपको बहुत कुछ तोड़ा, परन्तु वुद्धिमत्ता की मशाल, जिसको उन्होंने प्रज्वलित कियाउसकी प्रभा, मालूम होता है कि केवल टिमटिमाके तौर पर ही रही । उपनिषद् भी गुप्त चिन्हवादले विल्कुन्त वञ्चित नहीं हैं और उनका प्रकाश न तो उनके मत सर्व रे कुओं में ही पहुंचता है और न वह सदैव अन्धकार से भिन्न हो पाया जाता है । षट् प्रसिद्ध दर्शन भी जो उपनिषदों के कालके पश्चात् बने, परस्पर एक दूसरेके खण्डन करने में ही अपनी शक्तिको नष्ट कर देते हैं और संसारसम्बन्धी वातोंकी मुख्तलिफ और मुखालिफ व्याख्या करते हैं । केवल एक वात, जिसमें वह सब सहमत हैं, वेदोकी ईश्वरकृत होनेके कारण अखण्ड सत्यता है । इस प्रकार अपने रहस्यवाद शास्त्रको ईश्वरकृत मान लेनेसे खोज के विशालक्षेत्र से वञ्चित रहने और दृष्टिक्षेत्र के संकुचित होनेके कारण वह सत्य दार्शनिक नयवादको भी न समझ सके और एकरुat marraarth जालमे फंस गये जो सावधानोंको फंसानेके लिये तैयार रहता है । इसका परिणाम यह हुआ कि मानव शकाओं धौर कठिनाइयोंके दूर करनेके स्थानमें जो तत्व ज्ञानका सच्चा उद्देश्य है उन्होंने अपने हो धर्मको पहिलेसे अधिक अनिश्चित
* देखो किताबके अंतमें फुट नोट नं ० ५ /
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(४६) -बना दिया, और उनका वास्तविक उपयोग उस व्यर्थ वादविवाद पर सीमित है जो वेदोंके अनुयाइयों में यरावर जारी है।
सत्य यह है कि एक पूर्व स्थापित वैज्ञानिक धर्मसे जन्म पानेके पश्चात् ऋग्वेदके रहस्यपूर्ण काव्यमें, जो अाधुनिक धमकी नीव है, भूत कालमें इतनी वृद्धियां व तब्दीलियां हुई है कि लोग उसकी इन्तदाको भूल गये हैं जिनमेंसे एक फिर्के को जो आज कल विद्या कोर्तिके पात्र हो रहे हैं. उसमें एक वानर जातिसे विकसित मस्तिष्कके विचारोके सिवाय और कुछ नहीं देखता है और दूसरेको जो धर्मके अंधश्रद्धानी है हरएक अक्षर और शब्दमें ईश्वरीय वाक्य हो दिखाई देता है। अगर वह परिणाम जो इन पृष्टोमें निकाला गया है, सही है तो इन दोनों विचारोंमसे कोई भी सत्य नहीं है, क्योंकि ऋषि कवि शिक्षित बालक न थे, जैसा कि वे समझे जाते हैं, और न वह किसी दैवी वाणीसे उत्तेजित ही थे। जन्मसे ही हिन्द धर्म जैनधर्मकी एक शाखा थी, गोकि उसने अपने पापको शीघ्र ही एक स्वतन्त्र धर्मके रूपमें स्थापित कर लिया। समयके व्यतीत होने पर वह किसी राक्षमी प्रभावमें आगया। जिसका 'विरोधीप्रान्दोलन उपनिषदोकी बुद्धिमत्ता और जगत प्रसिद्ध दर्शनों, न्याय, वेदांत श्रादिकी कलि व कालका लक्ष्य है। अपने श्रापको एक स्वतन्त्रमत स्थापित कर देने के कारण स्वाभाविकही वह जैन मतको अपना विरोधी समझने पर वाध्य हुआ, और दर्शनोंमेंसे कुछमें जैन सिद्धान्तके खण्डनार्थ सूत्र भी लिखे गये हैं, यद्यपि
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(४७) जिस वस्तुका वह वाकई खण्डन करते है वह वास्तव में जैन सिद्वान्त नहीं है जैसा कि जैनी लोग समझते हैं बलिक स्वयं उनकी मनमानी कल्पनायें है जो जैनमतके बारेमें उन्होंने गढ़
इम इस प्रकार यह परिणाम निकालते हैं कि दोनो थर्मा में अधिक प्राचीनताका प्रभ जैनमतके हफमें फैसला होना चाहिये, और यह कि पूज्य तीर्थंकरोंका मत हिन्दु मतकी पुत्री या झगड़ालू संतान होने के बजाय वास्तवमें स्वयं उन निस्स.
* यह आशका कि वेदोंकी भाषा जैन शास्त्रोंकी मापासे शताब्दियों पहिलेकी जान पड़ती है, व्यर्थ है क्योंकि प्राचीन कालमें मनुष्य अपने शास्त्रोंको कण्ठस्थ करके सुरक्षित रखते थे। जैनमत और हिन्दू मतके शास्त्र भी प्रथम इसी विधिसे सुरक्षित थे. और लेखनकलाका प्रयोग अभी कुछ काल पूर्व के ऐतिहासिक समयमें हुआ है परतु वेद कवितामें लिखे गये हैं जिसका अभिप्राय यह है कि वेदोंकी भाषा सदैव के लिये नियत हो गई, जिसमें परिवर्तन नहीं हो सक्ता इसलिये वे सदैव अपने रचनेके समयको ही दर्शायेंगे । विला लिहाज इस अमरको, वह कर लिखे जायें । यह पात जैनमतमें नहीं पाई जाती है, जिसके शास्त्रोंकी भाषा सदैवके दिये नियत नहीं है। अतएव जिस मापामें जैनतिद्धात लिये गये हैं वह वही भाषा है जो उनके लेखनसमयमें प्रचलित श्री। जैनमतके सम्बध में भाषाकी जांच इस कारण असफल होती है और उसकी प्राचीनताका भनुमान विपक्षी धर्मों के शास्त्रोंकी आंतरिक साक्षी द्वारा ही हो सका है।
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(४८ )
देह प्राचीन धर्मका प्राधार है। बुनासा यह है कि हिंदू धर्म अपनी उत्पत्ति के लिये उन तोय कुशलताबाले कवियोका कृतज्ञ है जिन्होंने अपनी अपरिमित उत्तेजना जागमे प्रारमा की अप्रगट और दैवी शक्तियोंको काव्यविचारमें व्यक्तिगत चांधा। उह यहशी न थे और न उनके लेखों में कोई पेनी शानण्य या वहशियाना बेसक्लीकी बात पाई जाती है जिसके कारण यह कहा जासके कि उस समयके मनुष्य अशो वधापनमें मुन्तिला थे। इसके विपरीत उनका बान जेनमत के अखण्ड सिद्धान्त पर निर्भर था जो तीर्थंकरों से निकली हुई शुतिके श्राधार पर स्थापित है। समयकी गतिने माता और पुत्रीमें पूरा वियोग पंदा कर दिया। योर पुत्रो पचात् को दुष्टोंके हाथमें पड़ गई। उसका परिणाम नाना प्रकारको पापकी संतान (योंकी रीति) हुप जिप्सको उपने किसी भयानक प्रभावके कारण जना । इसके बाद वह उपनिषद के रचनेवाले ऋषियोंकी रक्षामें जगजोंको तनहाई में पश्चात्ताप करती हुई मिलती है, और फिर इसके बाद हम उसको बुद्धिमत्ताके विश्वविद्यालयमें अपने के नये और मुख्तलिफ़ मगर Ill fitting (अयोग्य) गोनो (चीरों) को सम्भालते हुए पाते हैं। और अब जब कि आधुनिक खोजकी X-ray
प्रबल बुद्धिमत्ता उसके निहायत अमूल्य और मनभावने श्राभूषणोंको प्रारम्भिक मनुष्य के हनुमान - जातिसे निकलनेके
*'संसारकी प्रहेलिका विकासवादियोंको सदैव उस समय तक हतो
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( ४ )
थोड़े ही पश्चात्का काम सावित कर रही है तो वह अपने उस
त्साह करेगी जब तक कि वे आत्माकी जो अपने स्वभावसे सर्वज्ञ है, जैसा कि " की आफ नॉलेज" और "साइन्स आफ थोट" में पूर्ण रीतिसे सावित किया गया हैं शक्तियों और गुणों स्वरूपका यथोचित ज्ञान प्राप्त न कर लें | इस सम्पूर्ण ज्ञानकी शक्तिको स्वयं पूरे तौरसे अनुभव में प्रगट करने के लिये किसी वस्तुको बाहर से प्राप्त करनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु केवल उस बाह्य पुगलके अंशको जो आत्मा के साथ लगा हुआ है, दूर करनेकी है । इस प्रकार जितना ही सादा ( वैराग्यरूप ) जीवन होगा, उतने ही अधिक उच प्रकार के ज्ञानकी प्राप्तिके अवसर मिलेंगे । इसलिये हमारे पूर्वज जिनका जीवन बहुत सादा था और जिनके विचार बहुत उम्र ये सची बुद्धिमत्ता के प्राप्त करने के हेनु उससे अधिक योग्य थे जैसा उनकी वर्तमान समय दूरको सतान ख्याल करती है। यह बात कि वास्तवमें भी यही हाल है, प्राचीन कथाओं ( पुराणों आदिसे ) सिद्ध है, जिसका अनुमोदन सामान्य रूपसे धर्मसबंधी विचारों और विशेष रूपले जनविद्वातकी अद्भुत पूर्णता की आंतरिक साक्षीसे होता है । इस प्रकार विवित होगा कि अपने अधिकतर वैज्ञानिक गुणोंसे अपने पूर्वजों को चकाचौंध कर देनेकी बजाय हमने उनको छोदी हुई शिक्षानिधिको भी बहुत कुछ नष्ट कर दिया है और अब गर्व करनेके लिये हमारे पास परिवर्तन शील फैशनों और कार्य होन पौद्गलिकता के अतिरिक्त नहीं है । निः सदेह यह उन्नति और विकाशके मार्गकी ओर चलना नहीं हैं परंतु इसके विपरीत पथपर मग धरना है ।
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भूले हुए भूत कालको जिसके कारण उसको बहुत दु:ख मिला है फिर स्मरण करने की चेष्टा कर रही है । स्वयम् एक सर्व विख्यात माताको संतान होनेके कारण हम उसको अपने पिछले ममयके, जब कि उसके बडे प्रशंसक कवि उस की तत्व शिक्षा के भावोकी प्रालंकारिक भाषा में परिवर्तन करके सहज बना दिया करते थे, कुछ कुछ सुमिरन करनेसे हर्षसे प्रफुल्लित होते हुए ध्यान कर सक्ते है । उसकी माता अब भी उसे हाथ पसारे हुए वापस लेनेको प्रस्तुत है, और यद्यपि वड व वृद्धा हो गई है तथापि वह प्रेम और क्षमासे आज भी वैसी ही पूर्ण है जैसी कि वह सदैव रही है । निस्सन्देह वह एक शुभ समय होगा जब कि हिंदू और जैनधर्मका पारस्प परिक संबंध पूर्णतया जान लिया जावेगा, और आशा है कि माता और पुत्रीका " शुभसम्मेलन सव सम्बन्धियोंको शान्ति और आनन्द प्रदान करेगा 1
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इति
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फुट नोट नम्बर १ इस क्रूरताके नवीन परिवर्तनका निन्न वृत्तान्त जन पुराणों की सहायतासे इस प्रकार पाया जाता है:
एक समय राजा वसुके राजमें जिसको बहुत काल व्यतीत हुआ एक शख्स नारद और उसके गुरु भाई परबतमें 'राज' के अर्थ पर जिसका प्रयोग देव-पूजामें होता था, विवाद हुआ। इस शब्दके वर्तमान समयमै दो अर्थ हैं, एक नो तीन वर्पके पुराने धान जिनमे अंखुपा (अंकुरा ) नहीं निकल सक्ता है और दूमरा 'वकरा'। पर्वनने, जो अनुमानतः मांस भक्षणका विलासी था इस बात पर जोर दिया कि इस शब्द का अर्थ चकरा ही है, मगर नारदने पुराने अर्थकी पुष्टि की । सर्व जनताकी सम्मति, सनातन रीति और प्रतिवादीकी युक्तियोंसे परवतकी पराजय हुई, मगर उसने राजाके समक्ष इस घटनाको उपस्थित किया, जो स्वयम् उसके पिताका शिष्य था। राजाफी सम्मति परवतके अनुकूल प्राप्त करनेके हेतु परव. -तकी मा छिप कर महलोंमें गई और उससे अपने पतिकी गुरुदक्षिणा मांगी और इस वातकी इच्छुक हुई कि मुंह-मांगा पर पावे। वसुने, जिसको इस वातका क्या गुमग्न हो सकता था कि उससे क्या मांगा जायगा, अपना पवन दे दिया। तव परवतकी मांने उसको पतलाया कि वह परवतके अनुकूल फैसला करे और यद्यपि वसुने अपनी प्रतिक्षासे हटनेका प्रयत्न किया। मगर पर्वतकी माने उसको ऐसा करनेसे रोका और
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( ५२ )
प्रतिज्ञा से न हटने दिया। दूसरे दिन मामला राजाके सामने उपस्थित हुआ जिसने अपनी सम्मति परवत के अनुकूज दी। इस पर वसु मार डाला गया और परवत राजधानीसे दुर्गतिके साथ निकाल दिया गया । परन्तु उसने अपनी शक्ति भर अपनी शिक्षा के फैलानेका प्रगा कर लिया। पर्वत अभी सोच ही रहा था कि उसको क्या करना चाहिये कि इतनेमे एक पिशाच पाताल से ब्राह्मगा ऋषिका भेष बना कर उस के पास आया । यह पिशाच, जिसने अपना सांडिल्य ऋषिके तौर पर परवतको परिचय दिया । अपने पूर्व जन्म में मधुपिङ्गल नामी राजकुमार हुआ था जो अपने वैरी ( रकी) द्वारा धोखा खाकर अपनी भावी स्त्रीसे वञ्चित रक्खा गया था । इसका विवरण यो है कि मधुपिंगलको राजकुमारी सुल्सा के स्वयम्वर में वरमाला द्वारा स्वीकार किये जानेका पूरा मौका था क्योकि उसकी मांने उसको पहले निजी तौर से स्वीकार कर लिया था । उसके रकीय सगरको इस गुप्त प्रवन्धका हाल मालूम हो गया और सुल्साके प्रेम अन्धा होकर उसने अपने मंत्री से इस बात की इच्छा प्रगट की कि वह कोई यक्ष राजकुमारीकी प्राप्तिका करे । इस दुष्ट मंत्रीने एक बनावटी सामुद्रिक शास्त्र रचा और उसको गुप्त रीतिले स्वयम्बर मण्डपके नीचे गाड दिया और जब स्वयम्बर में आये हुये राजकुमारोंने अपने अपने श्रासन ग्रहण कर लिये' तो उसने कुलपूर्वक ज्योतिष द्वारा एक प्राचीन शास्त्रका स्वयम्वरके मण्डपके नीचे गड़ा होना बतलाया । किस्सा मुख्त
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( ५३ )
सर जाली दस्तावेज खोद कर निकाला गया और समाने मंत्री से उसके पढ़ने का अनुरोध किया ।
उसने शास्त्र पढ़ना प्रारम्भ किया और शीघ्र ही आखोके वर्णन पर छाया जिसके कारण मधुपिङ्गल विशेषतया प्रसिद्ध था बड़े हर्प सहित मधुपिङ्गलके उस शत्रुने बनावटी सामुद्रिक शास्त्र के एक एक शब्दको, जिसमें मधुपिंगलके ऐसी आंखोकी चुराई की गई थी, जोर दे दे कर पढ़ा, कि वह दुर्भाग्यकी सूचक होनी है और उनका स्वामी कर्महीन, अभागा, मित्र ओर कुटु स्त्रियोंके लिये अशुभ है । बेचारे मधुपिंगलके आंसू निकल प्राये और वह समासे उठ गया । इस कपट-क्रिया के द्वारा परास्त, दुःखित और लजित हो कर उसने अपने कपड़े फाड़ डाले और संसारको त्याग सन्यासीका जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया। इस समय सुहसाने स्वयम्बर में प्रवेश किया और सगर को अपना पति स्वीकार किया ।
इसके कुछ काल पश्चात् मधुपिंगलने एक सामुद्रिक के जानकारसे सुना कि उसके साथ छल किया गया और धोखा हुआ तथा अन्याय युक्त विधियोंसे उसकी भावी स्त्री से उसको प्रथक् किया गया । उसने उसी कोधकी हालतमें जो धोखे के हालके खुल जानेसे उत्पन्न हुआ था, अपने प्राण तज दिये । मरकर वह पाताल में पिशाच योनिमें उत्पन्न हुआ जहां उसको अपने पूर्व जन्मके धोखा खानेका बोध हो गया और यह वहांसे अपने शत्रुओसे बदला लेनेको चला। वह तुरन्त
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( ५४ )
मनुष्योंके देशमें आया और पश्वतसे उस समय उसका समागम हुआ जब कि वह वसुके राज्यसे निकाला गया था और सोच विचार में था कि वह 'ज' शब्दके अपने ( नवीन ) अर्थ को किस प्रकार संसार में फैलावे । उसने परवनको अपने शत्रुसे बदला लेने में योग्य और प्रस्तुत सहायक जानकर उसके दुष्ट कार्यकी पूर्ति में सहायता देने की प्रतिज्ञा की । मनुष्य और पिशाच की इस अशुभ प्रतिज्ञाके अनुसार यह निश्चय हुआ कि परवन सगर के नगरको आय जहां पर महाकाल ( यह उस पिशाचका वास्तविक नाम था ) सब प्रकार के बत्रा ( रोग ) और मरी फैलायेगा जो पर्वत के उपायोसे दूर हो जायेंगी ताकि इस प्रकार परवतकी प्रतिष्ठा वहांके लोगोकी निगाहमें हो जाय जिन में वह अपने भावोंका प्रचार करना चाहता था । पिशाचने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और परवनने समस्त प्राणियो को बुरे बुरे रोगों में ग्रसित पाया जिनका वह मन्त्रों द्वारा सफलता पूर्वक इलाज करने लगा। परन्तु उस अभागे राज्यमें हर रोगकी जगह पर जो अच्छा हो जाता था, दो नये और रोग उत्पन्न हो जाते थे । यहां तक कि लोगोंको इस बातका विश्वास हो गया कि उन पर देवताका कोप है और उन्होने परवतसे, जिसको वह अब अपना मुख्य रक्षक समझने लगे थे, इस बारे में सम्मति ली । इस प्रकार कुछ समय व्यतीत हो गया और अन्तमें यह विचारा गया कि aafaaiको नवीन प्रथाके आरम्भके लिये सतय अनुकूल है। आरम्भ कालमें प्राणियो के
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बलिदान ही संख्त
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विरोध हुआ, परन्तु वहुत काल तक मेले हुये असा दुःखो
और पर्वतकी अतुल प्रतिष्ठाने जो पूजाके दो तक पहुंच गई थी, और मुख्यतः उस श्रद्धाने जो उसकी अद्भुत शक्तिके कारण लोगोंमें उत्पन्न हो गई थी और जो वास्तवमै उसकी कार्य सफलताके अनुभव पर निर्धारित थी, मन्द साहसवाले हृदयोंको उसको आज्ञापालनक लिए प्रस्तुत कर दिया। सबसे पहले मांस बाज़ वाज़ रोगोंमे दवाईक तौर पर दिया गया और वह कभी आशाजनक परिणामके उत्पन्न करनेमें निष्फल नहीं हुआ। जिस पातको परवत वादविवादसे साबित नहीं कर पाया था उसीको वह अपने पिशाच मित्रकी सहायतासे इस कार्य परिणित युक्ति द्वारा सावित करनेमें फलीभूत हुआ। धीरे धीरे उसके शिष्योंकी संख्या वरावर बढ़ती गई । यहा तक कि परवत के इस घातके विश्वास दिलाने पर कि वलिसे पशुको कष्ट नहीं होता है वरन् वह सीधा स्वर्गको पहुंच जाता है, 'अन'-मेध (यश) किया गयो । यहां भी महाकालकी शक्तियो पर भरोसा किया गया था जो कार्य हीन नहीं हुई, क्योंकि ज्यो ही लिपशुने पवित्र कुरीके नीचे तड़पनाव कराहना प्रारम्भ किया, त्योही महा. कालने अपनी माया-शक्तिसे एक विमान में एक बकरेको हर्पित वा प्रसन्न स्वर्गकी और जाते हुये बना कर दिखा दिया। सगरके राज्यके वुद्धि भ्रष्ट लोगोंको विश्वास दिलानेके लिये पर किसी चीजकी आवश्यकता नहीं रह गई । श्रज मेधके पश्चात् गोमेध हुमा, गोमेधके शद अश्वमेध और अन्ततः पुरंयमेध भी बडे
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( ५६ ) समारोहके साथ मनाया गया जिनमेसे हर एकने अपना प्राजाजनक फल दिखलाया। हर यज्ञमें पलि-पशु या मनुष्यको स्वर्ग जाते हुये भी दिखाया गया। जैसे जैसे समय व्यतीत होते गया लोगोके हदयोसे मांसभत्तण व जीव हिंसाको घृणाजो उनमें प्रारंभिक धावस्थामें थी निकलती गई, यहां तक कि अन्नमें वलिदान वलि-प्राणीके लिये स्वर्गके निकटस्थ मार्ग माना जाने लगा ! इस प्रथाकी एक व्याख्या वास्तवमें वलिदानके शास्त्रोमें जो उस समयमें रचे गये थे कर दी गई और लोगोंके दिलोंमें इन रीतियों के लिये इतनी श्रद्धा हो गई कि बहुतसे आदमी हर्षपूर्वक यह विश्वास करके कि वे इस प्रकार तुरन्त स्वर्ग पहुंच जायेंगे स्वयम् अरनी वलि चढ़ाने के लिये तत्पर हो गये। अन्तमें सुल्ला और उसका कपटी वाहनेवाला मगर भी देवताओंके प्रसन्नार्य अपना अपना बलिदान कराने पाये और वेदी पर काट डाले गये।
पिशाचका प्रण अब पूर्ण हो गया। उसने अपना बदला ले लिया और पाताललोकको चला गया। उसके चले जाने से बलिदानका धनावटी प्रभाव बहुत कुछ जाता रहा परन्तु चूंकि वह अपने साथ वयानों और महामारियोंका भी लेता गया, इस कारणवश उसकी ओर प्रारम्भमें लोगोंका ध्यान नहीं गया । नवीन रचे गये पाक्यके कि 'वलिप्राणी सीधा वर्गको पहुंच जाता है' अप्रमाणित होनेको अब लोग इस प्रकार,समझाने लगे कि यह पवित्र मन्त्रोंके उच्चारण या शुद्ध
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( ५७ ) अनुवाचनमें जो चलिदानके समय पढ़े जाते थे, किसी त्रुटिके रह जानेके कारणसे अथवा किसी प्रकारके किसी और कारण है। इसी बीचमें यज्ञ करानेवाले होताओंके निमित्त यज्ञकी पूरी विधि भी तयार कर ली गई थी और प्राचारिक पद्धतिका एक-सम्पूर्ण नीति शास्त्र भी तय्यार हो गया था जिसमें छोटे छोटे यिमों पर भी अच्छी तरहसे विचार किया गया था। अनुमानतः प्राचीन (ऋग्वेटके ) समय के कुछ मन्त्रों में भी परवत और उसके मातहत शिष्योंके अनु. सार परिवर्तन कर दिया गया था। मगरकी राजधानीसे बढ़ कर यह नई शिक्षा दूर तक फेन गई और पिशाबके अपने निवास स्थानको प्रस्थान करने के पश्चात् भी होनाओंकी शक्तियां, जो उनको मिस्मरेजम, योगविद्या इत्यादिके अभ्यास से जिनमे मालूम होना है कि उनका भली प्रकार प्रवेश कराया गया था, प्राप्त हुई थी; लोगोको परवतके दुष्ट-मनकी ओर श्राकर्षण करनेमे पर्याप्त रहीं।
इस कथनकी पुष्टि जव हम स्वयं हिंदु शास्त्रोके वाक्योंसे पाते हैं तो हमारा विचार उपर्युक्त जैन शास्त्रोमें वर्णित हिंसाके कारणकी सत्यता पर दृढ़ हो जाता है। देखिये-भारत शांति पर्वके ३३६ अध्यायमे लिखा है कि
चंद्रवंशीय कृति राजाके वसु नामके पुत्र थे जो परम वैष्णव और स्वर्गगज इन्द्र के परम प्यारे मित्र थे। इन्द्रने इन्हें एक प्राकाशगामी रथ प्रदान किया था। इसी
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(५८) पर चढ़ करके ये प्रायः सर्वदा उपरिदेश ( श्राकाश ) को जाया करते थे। इसी कारण इनका नाम उपरिचर हुआ था। सत्य. युगके किसी समयमें याजक ऋपि और देवतायोके वीच एक भयानक विवाद उपस्थित हुआ। विवाद होने का कारण यह था कि ऋषिगण पशु हिमाको पाप समझ केवल धान्यादि वीज समह द्वारा याग करते थे। देवगण पियोंके इस व्यवहारसे सन्तुष्ट न हो कर एक दिन उनके निकट आ कर बोले-"याजक महाशय ! आप यह क्या कर रहे है ? 'अजेन यव्यं इस शास्त्रानुसार छाग पशु द्वारा याग करना उचित है।" मुनियोने उत्तर दिया, "ऐसा नहीं हो सकता है, पशु हिंसा करनेसे ही पाप होता है। 'वीर्जयैज्ञेषु यष्टव्य' इस वैदिकी शुतिके अनुसार वीज द्वारा ही याग करना उचित है। आप लोगोने जिस शास्त्र का वचन कहा उसमें भी अज शब्दसे वीजहीका उल्लेख किया गया है वह पशुवाचक नहीं है।" किन्तु देवताओं ने इसे स्वीकार करना न चाहा। वे बहुतसी युक्ति और प्रमाण दिखा कर अपना ही मत प्रवल करनेकी चेष्टा करने लगे। ऋपि भी उन लोगोंसे कम न थे। वे भी अनेक युक्ति और प्रमाणके इलसे देवताओंका मत खण्डन करने और अपने मतके प्रतिपादनमें यत्नवान् हुए। इसका विचार वहुत दिन तक चलता रहा, वाक्ययुद्ध भी बहुत हुआ, किन्तु कौनसा मत उत्तम है इसका कोई निर्णय न हो सका। ऐसे समयमें उपरिचर राजा जा रहे थे। दोनों पक्षोने दोनो मतमें कौनसा मत उत्तम है, इसके निर्णय
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( ५६ )
करने का भार उन्हीं पर सौंपा। राजाने देवताओंका पक्षपात कर उन्हीं मतका अनुमोदन किया। इस पर ऋषियोंने क्रुद्ध हो राजा को शाप दिया । इस शापसे ही महाराज उसी विमान के साथ अधोविचार ( भूगर्भ ) को जा रहे हैं, ऐसा देख देवताओंको वडी लजा मालूम हुई। उन्होंने राजाको विष्णुकी आराधना करने का उपदेश दिया और 'शुभ कर्म में वसोर्धारा देना होगा' ऐमा ही विधान किया । इसीसे ही भूगर्भस्थित वसुको प्रोति होती है । आजकल भी विवाह इत्यादि शुभकर्मोमें 'वसोर्धारा' देने की नीति प्रचलित है । कालक्रमसे विष्णुने उन्हें मुक्त कर दिया । ( हिंदी - विश्वकोष, सप्तम भाग, पृष्ठ ४९३ )
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फुट नोट नं० २
उनके वेदार्थ की उत्तमता और मोलका और भी ठीक २. अनुमान करनेके लिये हम आर्य समाजियोंमें अग्नि और इन्द्रके स्वरूपकी जो स्वामी दयानन्दजीके अनुयायी और 'टर्मिनाकोजी श्रौफ दि वेदज' के प्रसिद्ध रचयिता मि० गुरुदत्त के कथनानुसार उष्णता या घोडोंके सिखानेकी विद्या और शासनकर्ता जाति क्रमानुसार है, जांच करेगे । गि० गुरुदत्त मैक्समूलर आदि पश्चिमी विद्वानोंकी कुशलताको चैलेज ( अस्वीकार ) करते है और करते हैं कि उन लोगोके अनुवादों में साधारण शब्दों को व्यक्तिवाचक मनायें मान लेने में अशुद्धियां हो गई है । यह ज्ञात रहे कि योरुपीय विद्वानोंने हिन्दू टोना कारों, नदीवर, सेन, आदिकी वृत्तियों की सहायताते ही अपने अनुवाद रचे हैं
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परन्तु मि० गुरुदत्त निरुकके कर्ता यस्कके मत पर जो हर शब्दको केवल उसके योगिक अर्थमें प्रयोग करता है, आरद है। हम योरुपीय अर्थकी यथेष्ट समालोचना कर चुके है और इसलिये अव मि० गुरुदत्तकी वृत्तिकी कुशलताका अन्दाजा उसको प्रोफेसर मैक्समूजरके अनुवादसे तुलना करके करगे। जिन वाक्योको हम तुलनात्मक निर्णयके लिये तजवीज करते हैं वह ही है जिसको मि० गुरुदत्तने स्वतः हो मुकाविलाके लिये पसन्द किया है और ये ऋग्वेदके १६२वें मुक्तके प्रथमके तीन मन्त्र है। मि० गुरुदत्त और प्रोफेसर मैक्समूलर दोनोके अर्थ 'टर्मिनालोजी औफ दि वेदज़ में दिये हुये है और निन्न प्रकार हैं। मि० गुरुदत्त
प्रो. मैक्समूलर २-"हम तेजस्वी गुणोंसे "पाशाहै कि मित्र, वरुण,
सुसज्जित फुर्तीले घोडेके आर्थमन, आयु, इन्द्र, ऋतुओं वल उत्पन्न करनेवाले के स्वामी और मारत हमको स्वभावोका वर्णन न करेंगे न झिड़कें क्योंकि हम यज्ञके या उताकी प्रबल शक्ति।
समय देवताओंसे उत्पन्न हुये का वर्णन करेंगे जिस
तेज घोड़ोंके गुणका वर्णन
करेंगे। को बुद्धिमान या विज्ञानमें में प्रवीण लोग अपने - उपायों में ( यशमें नहीं) “काममें लाते हैं।
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(६१) २-"वह लोग जो यह शिक्षा, २-"जब वे घोडेके आगे जो
देते हैं कि केपल सत कर्मों खलिस सोवरणके आभू. से उपार्मित धन ही संग्रह पणोंले विभूपित है वलिको और व्यय करना चाहिये मजबूत पकड़े हुये ले चलते और वह जो बुद्धिमत्ता है तव चितला (धन्वेदार) प्रवेश हो चुके हैं जो दूसरों वकरा अगाही चलते से पदार्थ विज्ञानके विषय वक्त मिमियाता हुआ में शास्त्रार्थ करने में और चलता है, वह इन्द्र और मूर्खाको सुधारने में निपुण पूपणके प्रिय मार्ग पर है, केवल वे और ऐसे ही चलता है। शक्ति और बनके रसको - शासनार्थ पीते हैं। ३--"उपकारी गुणों से पूर्ण 1-"वह बकरा जो कि समस्त बकरी दूध देती है
देवताघोंके लिये अर्पित
है पूपणके भागके तौर पर जो घाडोंके वास्ते
प्रथम तेज घोड़े के साथ एक पुष्टिकारक मोजन
निकाला जाता है है; सर्वोत्तम अनाज
कारण कि त्वस्त्रि स्वत. उसी समय उपयोगी ही मन भावन भेटको जो होता है जब कि चतुर घोडेके साथ लाई जाती है रसोइया द्वारा भोज्य कीर्ति प्रदान करती है।" वस्तुओंके गुण संबन्धी ।
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ज्ञानकी रोतियोंके अनुसार स्वादिष्ट भोज के रूपमें बनाया जाय ।"
शब्दोको बड़े हरूकोमें हमने लिखा है और उनका प्रभाव हर एकको स्वीकृत होगा जो स्वामी दयानन्द के इस कथनको ध्यान मे रक्खेगा कि उपरोक्त सुक्त 'अश्व विद्या का वर्णन है जो घोड़ोंके लिखाने और विजलीकी भांति विश्वव्यापी उष्णता के विज्ञान से संबंध रखता है" ( देखो टर्मि नालोजी आफ दि वेद्ज़ पृष्ठ ३८ ) | दुर्भाग्य वश इस अयकी अश्व विद्या अर्थात् भोजन सबंधी कुशलतासे प्रसग योग्यता किसी प्रकार युक्ति द्वारा प्रगट या प्रामाणिक नहीं की गई ।
विपक्षी अर्थमे भी वास्तवमे कोई कुशलता नहीं है यदि उस को शब्दार्थमें पढ़ा जावे । परन्तु उसकी प्रसंग योग्यता उसके एक विद्यमान चालू रीतिले जो निःसन्देह बहुत प्राचीन काल से चली आई है, अनुकूलता रखने के कारण स्पष्ट है ।
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निस्सन्देह यह बात सत्य है कि वैदिक परिभाषाओंके अर्थ करीव २ सभी योगिक है जो रूढ़ि से, जिसका भाव इच्छानुसार रख लिया जाता है, भिन्न जाती है । परन्तु यह भौ इतना ही सत्य हैं कि अनुमानतः संस्कृत भाषाका तमाम कोप ऐसे शब्दों से परिपूर्ण है जो मूल धातुओंसे मुख्य मुख्य नियमोंके अनुसार निकलते है । यह विशेषत व्यक्ति वाचक शब्दों तक पहुंच गई 2. विशेषकर व्यक्तिषोंके नामोमें पाई जाती है, जैसे राम वह है
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जो हर्ष पहुंचाये या जो श्रानन्द 'पूर्ण और हर्षदायक हो। इस प्रकार हर वृत्तिके विषयमें किसी न किसी दृष्टि सन्देह करना सदैव संभव है परन्तु यह विदित है कि इस तरीके से कोई संतापजनक फल प्राप्त नहीं हो सकता है । बहुतसी दशाओंमें धातुवाद शब्दों के अर्थको यथेष्ट रोतिसे प्रकाश कर देगा, परन्तु प्रायः यथार्थ माच प्राप्ति के कारण शोंका प्रचलित या प्रसिद्ध भावका भी प्रयोग करना अवश्यकीय होगा । यद्यपि इस चातको दृष्टिगोचर रखना होगा कि इन प्रसंग योग्यताको अपनी प्रिय सम्मतिकी पुष्टिके कारण हठपूर्वक नष्ट न कर दें। इसलिये यह कहना सत्य न ठहरेगा कि इन्द्र सदैव शासनकर्ता जाति है और शासनकर्ता जातिके अतिरिक्त और कुछ भाव नहीं रखता है, और अग्नि अश्व विद्या या उष्णता के अतिरिक कभी और कुछ नहीं है, इत्यादि । उष्णताके भाव अग्नि और शासनकर्ता जातिके भावमें इन्द्र बिला शुबहा इस बात के योग्य नहीं है कि वेदके मन्त्रोमेंसे बहुत अधिक मन्त्र उनके लिये नियत किये जांय, मुख्यतया जब उनके विरोधी क्रमानुसार शीत और ऐसी जातिको जिस पर दूसरा शासन जमाये हो वैदिक देवालयमें कहीं स्थान नहीं मिला है । बहुतसी विद्यायें, उद्यम, गुण और जानवरोंके सिखाने की रीतियां और भी हैं जो मि० गुरुदत्तके भाव के लिहाजमे धग्नि और इन्द्रसे कम आवश्यक या उपयोगी नहीं है, मगर हमको वेदोंमें कोई मन्त्र उनके लिये नहीं मिलता है। न तो अश्व विद्या और न
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शासन विपय वपयोगी पदार्थोके उन छह विभागों अर्थात् (१) काल, (२) स्थान, (३) शक्ति, (४) मनुष्य-आत्मा, (५) इच्छा पूर्वक कार्य, (६) जीवन क्रियायोमें जो रमिनालोजी औफ दि वेदज ( देखो पृष्ठ ५३-५४ मे वर्णन पाया जाता है। बावजूद इसके किमि० गुरुदत्तने यह विमाग वन्दी वैदिक देवताओं के निर्णय एरने के लिये विशेपतरा बनाई थो, जो न वैज्ञानिक ढग पर न दार्शनिक विचारसे किसी प्रकार निर्दोष हो सक्ती है । उपणता वास्तवमें शक्तियोंके विभागमें सम्मिलित हो सक्ती है जैसे कि वह वाकई है परन्तु उसका अपनी पांतिकी अन्य प्राकृतिक शक्तियोंसे अग्रगामी होनेका अधिकार अभी प्रमाणित होनेको शेष है।
इस प्रकार हम अपने आपको इस बातके माननेके लिये वाध्य पाते है कि वेदोके मन्त्रोमें देवताम्रोके तौर पर वर्णित अग्नि और इन्द्र उष्णता या अश्व विद्या और शासनपर्ता जाति का अर्थ नहीं रखते हैं, वरन् आत्माके कतिपय गुणों या पर्यायोंके वाचक हैं। इसी प्रकार श्रायु और पृथ्वी, श्राफाश और भूतल नहीं है परन्तु क्रमानुसार श्रात्मा और पुनल है। पुष्टि दाता पूषण इसी प्रकार आयुका (जो जीवन शक्तिका नियत करनेवाला है' ) रूपक है । यद्वा कभी २ वह प्रकाशके देवताओं में भी गिना जाता है कारण कि प्रायु कमकी स्थिति तक ही शारीरिक बलका होना संभव है। यह बात कि पूषनका वर्णन यात्रीके तौर पर आया है उसके यथार्थ भावका एक और सूचक है,
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क्योंकि आयु वरावर कम होती रहती है अर्थात् गुजरती रहती है और अंलकारमें पथिक रूपसे बांधी जा सकती है। पूपनके दांतोंका गिरना जिसका वर्णन पुराणों में आया है अनुमानतः इस. लिये है कि उसके स्वरूपको निस्सन्देह साबित कर दे क्योंकि यह वृद्धावस्थाका लक्षण है । इसलिये बलिदानमें पूपणके माग का अर्थ पुण्य कर्मोसे उत्पन्न होनेवाला आयुक्रम होगा। यहां भी हम जैन सिद्धातको इस बातकी व्याख्या करते हुये पाते है जो हिन्दू शास्त्रों में भ्रमपूर्ण है क्योकि हिन्दू शास्त्रों में कोई निश्चित नियम पालन और बंध संबंधी दर्ज नहीं है और इस कारणवश वह व्योरा रहित अस्पष्ट विचारों पर संतुष्ट रहने के लिये वाध्य है । वास्तवमै कर्म बंधन चार दशाओमें पाया जाना है और इसलिये उसके समझने में निम्न लिखित वातोके जानने की आवश्यकता है-(१) १४८ कर्मप्रकृतिका स्वरूर जा जैन सिद्धान्त अन्धोंमें वणित है (२) कर्म प्रकृतियोको मर्यादा । ३) बंध की नीवना और (४) मिकदार अर्थात् पुहलकी मिकदार जो आत्मा शामिल हो। यह चारो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश बंध क्रियानुसार कहलाते हैं और इनके ज्ञान विना यह नहीं कहा जा सक्ता है कि कर्म के नियमले जानकारी प्रात हुई । भव जहा तक श्रायुका संबंध है वह शेषके सात को इस घातने विलक्षण है कि उसकाध जीवन पर्यंत एक ही दफन होता है जबकि और शेष कर्माका हर समय होता रहता है मानवी जो पौद्गलिक मादा आता है उसको यों कह सकते है
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कि वह वंधनके लिहाजसे कर्मके विभिन्न भागों में भाजित हो जाता है और उसमे कर्म प्रतियां बनती हैं और इस विभाजित होने में विद्यमान. आन्तरिक भावोका वडा प्रभाव पहता है। यह भाव रवयम् व्यक्तिगत विचारों पर निर्भर है । पुण्य और वैराग्य प्रात्माका बल और वीगनाको बढ़ाते हैं और पाप उसको निर्वल और अधोगति अवस्थामें डालता है।
इन उपरोक्त विचारों के लिहाजसे वेदोंमें वर्णन किये गये देवताओंके बलिदानका अर्थ उन कृतियोंसे समझना चाहिये जिनसे जीवन क्रियाओंका जो देवी देवताओंके रूपमें वर्णित हैं पालन पोषण होता है, और किसी भावमें भी प्राणियोंका रक्त. पात नहीं समझना चाहिये । विशेष करके वलिटानका संबंध आत्माके स्वाभाविक शुद्ध गुणोंसे है जो इच्छायों के मारने और तपस्यासे प्रगट होते हैं। पौद्गलिक प्रास्रव जो निःस्वार्थ कर्मसे होता है शुभ बंधनका कारण है और इस 'भेंट' (पुण्य प्रास्रव) का विविध प्रकारकी शुभ कर्म प्रकृतियों में विभाग होता है जो देवताओंका भाग कहा गया है। ऋग्वेदके १६२३ सुक्तके प्रथम तीन मन्त्रोंके भावार्थका समझना अव कठिन नहीं है। उनका सबंध मन (अश्व ) के वशमें करने (- नष्ट करने प्रत. एव मार डालने वा बलि चढ़ाने ) से है जिसके पूर्व कामवासन का (जिसका अनुरूपक वकरा है) स्वभावतः नाश करना आबश्यक है। यह विदित होगा कि. यह यज्ञ देवताओंसे सीधा संबंध रखता है और उनकी पुटिका तत्कारण है जबकि
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प्राणियोका किसी दूरवर्ती देवताके प्रसन्नार्थ घात करना न्याय व विज्ञान दोनों में से किसीके भी प्राश्रय नहीं है ।
अन्य देवताओंकी ओर ध्यान करने पर युगल प्रश्विनी कुमार स्वांनकी दो नाडियों, क्रमानुसार इड़ा व पिङ्गला के रूप रू प्रतीत होते हैं ) उनके बारेमें यह माना गया है कि वह वरावर चलते होते हैं। कारण कि प्राणका स्वभाव सदैव चलते रहने का है । और वह वैद्य रूपमें भी माने गये हैं इस कारण से कि स्वासीच्छ्वास नाड़ियोके अपवित्रताको दूरकर देता है और इस कारणसे मो कि योगियो द्वारा यह बात मानी गई है कि मनुष्य के शरीर के बहुत से रोग जीवनकी मुख्य शक्ति अर्थात् प्राणका जिसका संबंध स्वांस से बहुत घनिष्ट : उचित प्रयोग करनेसे दूर हो जाते हैं । स धारण रूपमे स्वांसको व्यक्तिगत वायुके प्रतिरूप में जिसका एक नाम अनिल ( स्वांस ) है वाधा है | परन्तु देवताओं में सबसे अधिक मुख्य ३३ है जिनमें ११ रुद्र ८ वसु १२ आदित्य, इन्द्र और प्रजापति शामिल है ।
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रुद्र जीवन के उन कर्तव्यों के रूपान्तर है जिनका रुक जाना मृत्यु है । वह रुद्र ( रुद्र यानो रोना मृत्यु समय रोदन होने के कारण कहलाते हैं, इसलिये कि मृतक पुरुषके मित्र और कुटुम्बी जन उसकी मृत्यु पर आंसू बहाते हुये देखे जाते हैं । चह आत्माकी भिन्न २ जीवन शक्तियों को सूचित करते हैं ।
८ वसु अनुमानतः शरीरके ८ मुख्य भागोंके जो अङ्ग कहलाने हैं कर्तव्योंके चिन्ह हैं। कुछ लेखकोंके मतानुसार ८ चसुओंका
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(६८) अभिप्राय ८ स्थानोंसे है, अर्थात् (१) पित्तज शरीर (२) ग्रह (३) वायुमण्डल (४) अलौकिक स्थान (५) सूर्य (६) आमाशकी किरणें (७) उपग्रह और (८) तारागण (देखो दि टामिनालोजी औफ दि वेदुज़ पृष्ठ ५५) मगर यह अधिक संभव है कि शारीरिक अङ्गों के विद्यमान कर्तव्य हों क्योंकि वे जीवको शक्तियों के विविध स्वरूप हैं। अथवेदके एक वाक्यमें (देखो दि टर्मिनालोजो औफ दि वेदज़ पृष्ठ ५३) उनका उल्लेख विविध शारीरिक कतव्योंकी भांति किया गया है ओर वृहदारण्यक उप. निषदके अनुसार ३३ देवताओंके पतलानेवाला मार्ग हृदय. मांकाशके भीतर है ( देखो दि परमान्यन्ट हिस्ट्री औफ भारतवर्ष भाग १ पृष्ठ ५३२ )।
अब हम आदित्योंकी ओर ध्यान देंगे जिनको संख्या १२ कही जाती है। मगर यह विदित है कि वह सदैव इतने नहीं माने गये हैं। इब्ल्यू-जे विलकिज साहबके मतानुसार देखो दि हिन्दु मेथालोजी पृष्ठ १८):
"यह नाम ( आदित्य ) केवल आदित्यके वंशजोंका हो , वाचक है। ऋग्वेदेके एक वाक्यमें छ? के नाम वर्णित है। . अर्थात् (१) मित्र (२) मायमन, (३) भाग, (४) वरुण (५) दक्ष . * Cई जैकोलियट साहच अपनी पुस्तक दि औकल्ट साइन्स इन इण्डियाके पृष्ठ १८ पर मनुके आधार पर बतलाते हैं कि जीव स्वयम् देवताओं का संग्रह है।
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और (६) अंश। और एक दूसरे मन्त्र में उनकी संख्या सात कही गई है, यद्यपि उनके नाम वहां नहीं दिये गये है। एक "तीसरी जगह आठका वर्णन है मगर अदिति अपने पाठ पुत्रों में से जो उसके उदरमे उत्पन्न हुए थे देवताओं के समक्ष सातको लेकर पाई और मार्तण्ड (आठवे ) को अलग कर दिया कि इन पुत्रोंके नाम जो वेदोंके
मिन्न २ मागोंमें दिये हुये है एक दूसरेसे नहीं मिलते हैं - इसलिये इस वातका जानना कि प्रादित्य कौन कौन थे • कठिन है । शतपथ ब्राह्मण और पुराणोमे आदिन्योकी संख्या १२ वारह तक बढ़ा दी गई है।" .
भविष्य-पुराणका कयन है (देखो दि पर्मान्यन्ट हिस्ट्री औफ भारतवर्ष, भाग १ पृष्ठ ४८१ च ४८६ ) कि आदित्यों को देवताओं में सबसे पहिले होने के कारण प्रादित्य कहते हैं। कुछ और लेखकोंके मतानुसार प्रादित्य शम्शी साल के बारह महीने है (देखो दि टर्मिनालोजी औफ दि वेदज पृष्ट ५५)
और उनको श्रादित्य इम कारण कहते हैं कि वह संसारमेंसे प्रत्येक वस्तुको स्त्रींच लेते है। इस यातका कि इस कथनका ठोक अर्थ क्या है समझना सहज नहीं है, परन्तु यह ज्यादा करीन कयास है कि आदित्य आत्माके, जिसकी शुद्ध अवस्था का रूपफ सूर्य, जो ज्ञानका एक उत्तम चिह है, मुख्य ( या प्रारम्भिक ) गुणों के सूचक है। इसलिये आदित्य जिनकी संज्ञा चाहे कितनी हीक्यों न हो, क्योंकि यह मनुप्यकी विमागन्दी
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(७ ) पर निर्भर है आत्माकी उसके मुख्य उपयोग अर्थात् नसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियायें हैं। इस प्रकार वरुण जिसका भेष शम्शी वर्षके महीनेके तौर पर हास्यजनक है कर्म शक्ति का प्रतिरूपक है क्योंकि यह मनुष्योंके सत्य और फंठको देखता है (हिन्दू मेथोलोजी पृष्ठ ३६ ) । एक दूसरे स्थानमे वरुण का शासनक्षेत्र विशाल करके समस्त संसारको कायम किया है, क्योंकि यह आकाशमें पक्षियों के उड़ने दूर चलने पाली वायुफे मार्ग, समुद्रोंमें चलनेवाले अहाजोंके पथको जानता है और तमाम पदार्थोको जो हुये हैं या होंगे देखता है। वरुणको समुद्रका अधिपति माना है, अनुमानतः इस कारण कि समुद्र संसार (आवागमन) का चिह्न है।।
अन्य आदित्य इसी प्रकार वर्षके मास नहीं हो सके हैं परन्तु जीवके भिन्न भिन्न गुण हो सके हैं।
अव केवल इन्द्र और प्रजापतिका उल्लेख वाकी है, इनमें से पहिलेका वर्णन तो 'हम अन्य स्थान * पर कर चुके हैं परंतु पिछला प्रजाओं (वंशों अत: जीवनके अनेक कार्यों ) का पति अर्थात् मालिक है, और हृदयके प्रभाविक कर्तव्यका चिन्ह है, (देखो दि पर्मान्यन्ट हिस्ट्री औफ भारतवर्ष भाग १, पृष्ठ ४६२-४६६)।
उपरोक्त वर्णन समस्त हिंदू देवालयोंको व्याख्याके लिये
* देखो दि की औफ नालेज और दि कानफ्लुएन्स औफ ओप्पोजिट्स "(वा असहमत संगम)।
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(७१) वस्तुत: ययेष्ट है, यद्वा उसके देवताओं की संख्या ३३ करोडसे कम नहीं मानी गई है क्योंकि इस देववंशके शेष देवता मुख्य ३३ तेतिसको ही, जो तीनमें और अन्ततः एक ही यानी स्वयम् भक्तकी परम पूज्य परमात्मा स्वरूप प्रात्मामें ही गर्मित हो जाते है, मानसिक सन्तान हैं। यह विदित होगा कि हमारी व्याख्या केरल उस अप्रसंगताको जो मि० गुरुदत्तके अर्थमें पाई जाती है और उस प्रतिरोधी अपनेको जो योरुपियन दार्शनिकोंके भावमें विदित है, दूर नहीं करती है वरन् हमको अपने देवताओं की जनसंख्या में सलग्न हिन्दू काल्पनिक शक्तिका पूरा दृश्य दिख जाती है। इन देवताप्रोक्री वशावलोके सम्बन्धमें बहुतसी उलझने और पेंच, जिन्होंने प्राधुनिक खोजी विद्वानों के दांत खट्टे कर दिये है, उनकी काल्पनिक उत्पत्तिके आधार पर सहजमें ही सुलझ जाते हैं, क्योकि जीवनकी विविध क्रियाओं के एक प्रकारले एक दूमरीमें गर्मित होनेके कारण यह समय समय पर अवश्य होगा कि उनकी उत्पत्तिके विचारोके प्रतिरूरक अपने पारस्परिक सम्बन्धियों ऐसे नामुताविक लक्षणों से परिपूर्ण हों जो अमर्मज्ञ मनुष्यको असध्य और इसलिये पूँठे प्रतीत हों। यह विदन होगा कि कुछ देवता स्वतः अपने पिताओंके पिता माने गये हैं और कोई अपने जन्मदाताओंके समकालीन, इस तरहको धोवेमें डालने. वाली कथायें केवल हिन्दुमतके ही विशेष लक्षण नहीं हैं वरन् मह रहस्यवाद और गुप्त शिता तमाम मनोंमें पाई जाती हैं,
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जैसे ईसाई मत में बाप और बेटे ( खुदा और ईसू ) का समकालीन होना। इनका भाव उनके स्वरूपोकी दार्शनिक मूल ( निकाल ) का पता लग जाने पर सुलभ और सहज होता है वरना भूल में पड़ने और भटकनेका कारण है ! उस मनुष्यको, जो अमरीय शासन और देवाधिपत्यके भेदका पता लगाना चाहता है, चाहिये कि सबसे पहिले नयवादका प्राभ्यञ्जन घृत, जिसके बिना बुद्धिमत्ताकी कुञ्जी रहस्यवादके मुर्चा लगे हुये तालों में जो शताब्दियों से बन्द पड़े हुये हैं नहीं फिरती है, प्राप्त करे । फिर उसको चाहिये कि वह अपने निजी विश्वासों और प्रिय विचारोंकी गठरी बांध कर अपने से दूर फेक दे, तब उन शक्तियों के पूज्य स्थानमें प्रवेश करे जो तमाम प्राणीमालकी प्रारब्धोका निर्माता हैं। केवल इसी प्रकार वह वास्तविक वस्तुस्वरूपमय सत्यको पा सकेगा और भ्रम व पक्षपातका शिकार होनेसे बचेगा। तीव्र बुद्धिवाले पाठक अब इस वात को समझ लेंगे कि प्रात्मा जो इन्द्रियों द्वारा पौद्गलिक पदार्थोका भोगता है इन्द्रके काल्पनिक रूपान्तर में द्यायुस और पृथ्वी ( जीव द्रव्य और पुद्गल ) की संतान है और तिस पर भी वह अपने पिताहीका पिता इस मानी (अर्थ) में है कि सिद्धात्मन् स्वयम् अपवित्र जीवका अपवित्रता र हित शेषभाग है । यह बात कि यह विचार सदैव
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* विविध अपेक्षाओं या दार्शनिक दृष्टियोंके ध्यानमें रखनेको नयवाद कहते हैं ।
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विल्कुल ठीक र वैज्ञानिक नहीं है व्याख्याकी सत्यताको कमजोर नहीं करता है क्योंकि हमारा अभिप्राय केवल रहस्यवादके भावार्यके दर्शानेसे है न कि उसकी घटनाप्रोके विपरीत वैज्ञानिक सत्य प्रमाणिक करनेसे। • साधारण रीतिसे यह विदित होगा कि रहस्यवादमें विरोधता और असंगतिका अश इस वातका दृढ़ सूचक है कि विविध अपेक्षाओंसे प्राप्त क्रिये हुये परिणामोको नयवादकी आज्ञाका उलंघन करके मिश्रित कर दिया है । इसलिये इस कहने में विरोध होना संभव नहीं है कि जो कुछ बुद्धि और बुद्धिमत्ता के विपरीत धर्ममें पाया जाता है वह किसी सत्य वातका वर्णन नहीं है चाहे वह सत्य वात कोई व्यक्ति हो या प्राकृतिक घटना परन्तु यथार्थ और वास्तवमें एक मानसिक कल्पना है जो एक वहु प्रज कल्पना शक्ति के कारखानेमे किती साधारण नियमके प्राधार पर गढ़ी गई है। वेदोके पश्चातकी कहानाओंमेंसे वह करपना जो अब केवल हिन्दुओंही में नहीं घग्न् तीन चौथाई मानव जातिमें प्रचलित है अर्थात् रक सृष्टिकता और शासक ईश्वरको कल्पना इस नियमका सर्वोत्तम उदाहरण दे रही है। अनुमानतः विचारका वह अंश जिसके आधार पर यह कल्पना स्थापित हुई है विश्वकर्माको स्वरूप है जो देवनायोका शिलाकार और ऋषि करियों के आकार रचनासबंधी विचारों अर्थात् वस्तुओं के प्राकृतिक स्वभावका रूपक है । ऐसा जान पडता है कि हिन्दु मस्तिष्कने द्रव्योंकी स्वाभाविक क्रियाके भेदसे चकगकर अन्ततः
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यह परिणाम निकाला कि द्रव्य कर्तव्यका भी कोई कारण अवश्य होगा, और अपनी इस अस्पष्ट और धुंधलो कल्पनाका कोई युक्तियुक्त आधार न पा कर एक नई प्रकारकी शकि अदृष्ट ( अ नहीं + दृष्ट = दृष्टिगोचर, अतः अनजान ) को जल्दो में कायम कर दिया | कवि-कल्पनाके उनी रुझान वश जो देवालय के और देवताओं की उत्पत्तिका कारण हुई, भट्टए भी समयानुसार दैविक गुणोंसे सुसजित हो गया और चूंकि वह आरम्भ होले और सब देवताओंके कर्तव्यका निकास और इसलिये उन सबसे अधिक बलवान अर्थात् ईश्वर ( ईश्वर वह है, जो ऐश्वर्य रखता हो अर्थात् वलसाम्राज्य या स्वामोपन ) माना गया था, इसलिये अन्ततः वह अप्रगट महेश्वर के सदृश संमार में प्रसिद्ध हो गया । हिन्दू देवालय में सर्वोच्चस्थान पा कर इस अदृष्टने अपना राज हिन्दू दुनिया के आगे फैलाना आरम्भ किया और अपने कुछ पूर्वाधिकारी मित्रादि की भांति शीघ्र ही अन्य देशों में जहां वह सब प्रकारके अच्छे और बुरे पदार्थका कर्त्ता माना गया, अपना सिक्का जमा लिया। चुनांचे 'इसीयह' नवी अपने ईश्वरको पुण्य व पाप दोनोंका कर्त्ता ठहराता है (देखो इजीलकी इसी यह नवीकी किताब अध्याय ४५ आयात ६ व ७ ) । मुहम्मदने भी 'इसोयह' की सम्मति के स्नीकार करने पर संतोष किया और इस बातको कह दिया कि नेकी और बदी दोनों ईश्वर कृत हैं, क्योंकि और कोई कर्त्ता दुनियामे नहीं है । पुण्य और पापके कर्त्ताके रूपमें सीधा सादा अगष्ट जिसकी उत्पत्ति कदा
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(७५) चित एक ऐसे वान:प्रस्तके मस्तिष्कमें हुई जो दार्शनिक विवेकके लिये विशेष विख्यात न था, अब जब कि लोग उसकी मानसिक उत्पत्तिको सृष्टिकर्ता सम्पन्धी वादविवादके तीव्र कोलाहलके कारण भूल गये हैं, तो वह सब प्रकारको विरोधता और असंगतिका भण्डार हो गया है। इसका विरोध होना मी असम्मष था क्योंकि मनुष्यके मस्तिष्कमें समस्त क्रिया और कर्तव्य के एक मात्र कारणके रूपमें कल्पित हो कर इसके लिये यह सम्भव न था कि वह किसी प्रकारके (कर्मजनित, स्वाभाविक इत्यादि) कृतियोंकी जिम्मेवारीको अस्वीकार कर सकता । अधिकांश निकट कालमें यह रूपक आत्माके आदर्शस भी जो ईश्वरमें लय होना समझा गया है, संवधित हो गया है । इस प्रकार अन्तिम शकि का प्रारम्मिक मानसिक विचार अब कमसे कम चार मिन्न वस्तुओंको गर्मित करता है, अर्थात् (१) प्रकृनिकी कार्य कारिणी शक्ति (२) जीव द्रव्य और अन्य द्रव्योंके कर्तव्य (३) कमजनित शक्ति और (४) जीवका अन्तिम उद्देश, इन ही चार भिन्न असंध्य कल्पनाओंका संग्रह है जो एक दर्शनिक विचारमे नवीन मदाखिलत करनेवालेके मास्तिष्कम लापरयाही स्थिर होकर अदृष्टके रूपकके तौर पर संसार शासक सम्बन्धी विषय में भूल और झगडेजा उपजाऊ कारण है।
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(७६)
फुट नोट नं० ३. तुल्ला लिये हुनायस्सनके दि सिस्टेम औफ दि वेदांत'का निन्न लिखित विषय पढ़िये (वास जाँस्टन साहयका अंग. रेजी तर्जुमा, पृष्ठ ८):
"...... ..यह वात ठीक है कि आरण्यकों में हमको वलिदान के भावार्थके वदलनेको विलक्षण दशा बहुधा मिलती है। यज्ञ संस्कारोंके अमली रीतिसे करने के स्थानमें उन पर भावार्थको बदलकर विचार करना बतलाया है जो धीरे २ सर्वोत्तम विचारों पर पहुंचा देता है । उदाहरणके लिये वृहदारण्यकका प्रारम्भिक विषय (जो अधोधायुके लिये नियत है ) मिसमें अश्वमेधका वणेन है ले लीजिये:
'ओ३म् ! प्रातःकाल वास्तवमें यज्ञके अश्वका सिर है। सूर्य उसका नेत्र है वायु उसकी स्वाम है। उसका मुख्य सर्वव्यापी अग्नि है। कण वलिदानके घोड़े का शरीर है, स्वर्गलोक उस को पीठ, आकाश उसका उदर और पृथ्वी उसके पांव रखने की चौकी है। ध्रुव ( Poles ) उसके कटिभाग हैं, पृथ्वो का मध्य भाग उसकी पलियां है, ऋतुर्ये उसको अवयव है, महीना और पक्ष उसके जोड़ हैं, दिन और रात उसके पात्र हैं; तारे उसकी हड्डियां है, और मेव उसका मांस है । रेगि स्तान उसके भोज्य हैं जिनको वह खाता है। नदियां उसकी अंतड़ियां हैं; पहाड़ उसके जिगर और फेफड़े हैं; वृक्ष और पौधे उसके केश हैं; सूर्य उदय उसके अगाडीके भाग
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हैं; और सूर्यास्त उसके पोछेके भाग हैं, जब वह जमुहाई लेता है तो वह बिजली होती है, जब वह हिनहिनाता है तो वह गजेता है। जब वह मूनता है तो वह बरसता है; उसका स्वर वाणो है। डिन वास्तवमें उसके सामने रखे हुये यज्ञके घरतनकी मांति है, उसका पलना पूर्वी समुद्र में है रात वास्तव में उसके पीछे रक्खा हुआ वर्तन है, उसका पलना पश्चिमी समुद्र में है, यह दोनों यक्षके वतन घोड़े के गिर्द (इधर उधर ) रहते है। घुड़दौड़के अश्वके तौर पर वह देवताओं का वाहन है। युद्धके घोड़े की भांति वह गंधोंकी सवारी है; तुरंगके सदृश वह असुरों के लिये है। और साधारण घाड़े के समान मनुष्यों के लिये है। समुद्र उपका माथी है, समुद्र उसका पलना है।'
"यहाँ संसार वलिदानके घोड़े के स्थानमें पाया जाता है, शायद इसके पीछे यहो भाव है कि योगीको संमारका त्याग कर देना चाहिये (देवो वृहदात्ययक अनिषद ३१ व ४३ ). निस प्रकार कुटुम्यका पुरुष यन्त्र के वास्तविक प्रतादों (Gifto) को त्याग देता है। ठीक उसी प्रकार छादोग्य उपनिषद (अध्यायश्लोक-१) जो उदगानाके लिये है सच्चे उदगाना समान शिक्षा देता है। ओ३म! शब्दको जो ब्रह्म (परमात्मा प्रतिक्रम ) का विन्ह है जनना और उसका आदर करना और मंत्र जिसका संबंध होता' से है ऐने आरण्यकम् (२,१, २) में उसा प्रकार अर्थका परिवर्तन किया गया है। तुलनाके लिये देखो ब्रह्मसूत्र
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( ७८ ) ३, ३, ५५-५६, जहां इस विचारकी पुष्टि की गई है, कि इस प्रकार के चिन्हित अलंकार (प्रत्यय) शाखामों में ही केवल सही नही पाये गये हैं बल्कि साधारण तौर पर भो।
फुट मोट नं०४ - इस प्रकारके रूपकोंका द्रोपदोके रूपले उदाहरण दिया जा सकता है जो महामारतके अनुसार पांघो पाण्डव भ्राताओको स्त्री थो। जैनमतके दिगम्बर आनायके पुराणों में इस यातका विराध किया गया है। और यह कहा गया है, कि वह केवल अनुनकी ही खी थी. जिसने उसको स्वयम्बरमें समाजके समक्ष जीता था। निस्सन्देह यह वात करीन कयास नहीं है कि ऐसे 'पुरुष जिनकी नेक और बदकी विचार शक्ति पाण्डवोंके समान उच्च अवस्था की थी, इतने भ्रष्टाचरण हो कि वह उसको एक ही समयमें पांच पतियोंसे संबंध करने पर बाध्य करें। सत्य यह है कि महान उपाख्यान के रचयिताने ऐतिहासिक घटनाओंको तोड मरोड कर अपने अलङ्कशिक आवश्यकाओंके योग्य बना लिया है, और सत्यार्थक हूंढ लेने का भार पाठकोंकी बुद्धि पर छोड़ 'दिया है। नवयौवना द्रोपदीका बधूरुपमें पांच पाण्डवोंके खान्दानमें प्रवेश करना, जीवन (Life ) और शान इन्द्रियों के संबंधसे इननीसद्वशता रखता है कि उसको महाभारतके रचयिता को अत्यात तात्र बुद्धि ध्यानमें लाये बगैर नहीं रह सक्ती थी,
और उपने उमका अर्थात् द्रोपदीका तुरन्त अपने युद्ध के बड़े नाटकमें जो आत्माकी स्वामाविक और कर्म शक्तियोंके अन्तिम
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( ७६ ) युद्ध और कर्म शक्तियोंकी पूर्ण पराजयका महान् अलङ्कार है, प्रयोग किया (देखो 'दि पमन्यन्ट हिस्टी औफभारतवर्ष के० पन० आइयर कृत भाग २) । इस प्रकार जय कि ऐतिहासिक द्रोपदीको युधिष्ठिर और भीम जो उसके पतिके जेष्ठ भ्राता थे अपनी पुत्री के समान और अर्जुनसे छोटे नकुल और नादेव अपनी मानाके समान मानते थे, तो उसकी (louble) अर्थात् काल्पनिक द्रोपदी पञ्चज्ञान इन्द्रिय और जीवन सत्ताके सम्बन्धको दर्शाने हेतु पाँचोंकी स्त्री विण्यात हुई। एक और कथाके अनुसार जो उसने सम्बंधित है सूय्य (शुद्धात्माके चिन्ह ) ने उसको एक अद्भुत माजन (घटलोई ) दिया था, जिसमें से सब प्रकारके भोजन और और पदार्थ पच्छानुसार मिलते थे। इस इच्छित वस्तुको देनेवाली लाईकी व्याख्या इस भांति है कि यात्मा स्वमावसे परिपूर्ण है और बांध सहायताले स्वतत्र है। दुष्ट दुस्सासनका द्रोपदाको सुन्दग्नाको जनताके समक्ष, उसके वस्त्रको जो अलोकिक ढंग से बढ़ता गया उतारकर प्रत्यक्ष कर, देने में असमर्थ रहना एक ऐसी बात है जिस से जीवके स्वभाव पर प्रकाश पड़ता है, क्योंकि बंध (द्रोपदी की रजस्वला)-अवस्थामें जीव सदैव माहेकी तहों में इतना लपेटा हुमा है कि किसी प्रकार भी उसकी नग्न छविका दर्शन करना सम्भव नहीं है!
जीव सनाफा एक और सुन्दर अलंकार श्रीमती फगोइयाकी जापानी कथामें पाया जाता है उसके पांच चाहनेवाले पांच __ इन्द्रियों के सूचक हैं जो सबके सब उसको उन असलो चीजों
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(८०) स्थानमें जिनको वह चाहती व मांगती है नकली और बुरी वस्तुः भेंट करके धोखा देते हैं; मोर मैकाडो बहिरात्मा (शारीरिक व्यक्ति) है जिसको छोड़कर वह चन्द्रलोक (पितृलोक )को वहाँके निवासियों के साथ प्रस्थान कर जाती है। - मगर द्रोपदीको इन्द्र से जो जावात्माका एक और अलंकार है पृथक् समझना चाहिये। इन दोनों रूपोंमें भेद यह है कि जब कि द्रोपदी जीवन सत्ता और ज्ञान इन्द्रियों के सम्बंधको जाहिर करती है, इन्द्रका भावक्षेत्र उसको अपेक्षा अधिक विशाल है। इन्द्रका जीवन यदि उसको एक ऐतिहासिक व्यक्ति या जीवित देवता माना जावे तो वह हिन्दुओके सदावार सभ्यता और देव तामोंके गुणों से घृणा उत्पन्न करने के लिये यथेष्ट है क्योंकि सिर्फ यही बात नहीं है कि उसने अपने गुरु गौतमको स्त्रोले भोग किया व पितामह ( ब्रह्माजी) ने भी उसे दण्ड देनेकी वजाया उसके पापके चिन्ह फोड़े फुन्सियोंको केवल उसकी प्रार्थना पर नेत्रों में परिवर्तन करके उसे और भी सुन्दर बना दिया, परन्तु इस कथाके यथार्थ अर्थका कोई संबंध इतिहाससे नही है और उससे प्रतीत होता है कि उसके रचयिताको आत्मज्ञानका बहुत कुछ बोध था, और अलंकारोंकी कवि-रचनाको अनुपात योग्यता प्राप्त थी । उस अलंकारिक भाषाका जो इस रूपके सम्बन्धमे व्यवहृत हुई है पूर्ण गतिसे रस लेने के लिये यह आवश्यक है कि हिन्दुओंके सृष्टि रचना सम्बंधी विचारोंको जो सांयमतानुसार पुरुष और प्रकृति के संयोगसे उत्पन्न होती है ध्यान में रखा जावे।
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( ८१ ) लेकिन यहाँ पर हमारा अभिप्राय सांख्यदर्शनों के सृष्टि-विकाश संबंधी विचारोंसे नहीं है वरन इसीसे है कि पुरुष से जीवात्माओं की उत्पत्ति किस प्रकार होती है जिसका वर्णन हिन्दुओं के प्रमाणित शास्त्र योगवाशिष्टमें निम्न प्रकार दिया गया है।
"उ र 'ह्मणके समान जो अपने उच्च पदसे च्युत हो कर शूद्र हो जाता है, ईसा (ईश्वर) भी जीयमें पतित हो जाता है । सहस्त्रों जीव प्रत्येक सृष्टि चमकते रहेंगे। उस उत्पन्न करनेवाले विचारके आन्दोलन से जीविक ईश्वर प्रत्येक विकाश में उत्पन्न होंगे। परन्तु इसका कारण यहां
"
इसमें ) नहीं है । जो जोन कि ईश्वरने निकलते हैं और उनी अहानासे उन्नति करते हैं भरने कर्मों द्वारा वारकवार जन्म मरणको शाम होते हैं । हे राम ! यह कार्य कारण संबंध है जो कि जीवोंगी उत्पत्तिके लिये कोई कारण नहीं है तो भी सत्ता और कर्म आपस में एक दूसरे के लिये कारण हैं । समस्त जीव घगैरह कारणके ईश्वरीय पदसे निकलते हैं, मगर उनको उत्पत्ति के बाद उनके कर्म -उनके दुःख और सुखके कारण होते हैं। और संकल्प मो आत्मोधकी अज्ञानताको मायासे उत्पन्न होता है सब कर्मोका कारण है।"
हिन्दुओं का ऐसा विचार एकसे अनेक हो जानेके धारेमें है, और यद्यपि यह विचार सदोष है और उन कठिनाइयोंसे जो साधारण मानसिक विचारों अर्थात् गुणोंको पदार्थोंसे जिनमें
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( ८२ ) वह पाये जाते हैं प्रथक समझने के कारण पैदा होते है, बचनेके लिये वाहरी उपायके नौर पर है, तो भी इस विचारका मनमें रखना उस मर्मके जाननेके लिये जो हिन्दुओंके हन्द्रादि देवताओं संबंधी कल्पनाओंमें पाया जाता है आवश्यक है।
इन्द्र के अपनी गुरुकी पती अहिलपासे भांग करनेवाली कथाकी व्याख्या करते हुये यह बात जानने योग्य है कि आत्मा का पुद्गलसे समागम नितान्त मना है, क्योकि मोक्षका अयही एकका दूसरेसे पृथक होना है। इससे आत्माका पुद्गल में प्रवेश करना एक वर्जित किया है, और इस कारण उसे व्यभिचार कहा गया है। अव चूंकि पुद्गल बुद्धिके ज्ञानका, जो जीवका शिक्षक है, मुख्य विषय है, इसलिये श्रात्मा और पुद्गलका समा. गम गुरुकी पत्नीके साथ व्यभिचार कर्म हो जाता है । आत्माके पुद्गलमे प्रखण्ड एकताके रुपमे प्रवेश करनेका फल अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति है (जैसे योगवाशिष्टके उल्लेखमें वर्णन है) जिनमें से प्रत्येक जीव पौद्गलिक परमाणुओंमे शरीरधारी हो जाता है और माइका अंधकारमयी प्रभावके कारण फोड़े फुरसी के सदृश होता है। परन्तु यह जीव फिर शीघ्र ही आत्माके ज्ञान और विश्वास द्वारा ( जिसको अलंकारकी भाषामें ब्रह्माजी अर्थात् ईश्वरकी उपासना कहा गया है ) आत्मवोध प्राप्त कर लेते हैं, और फिर पूर्णता और सर्वशताको पा लेते हैं, इसलिये 'वह नेत्रों में परिणत हुये कहें गये हैं।
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( ३ )
इन्द्रकी बाबत कहा जाता है कि उसको सोम रसका भी चहुत शौक है जो मुसजमानो के मतको शराब तरासे सहता रखता है। यह एक प्रकारकी मदिरा है जो मगन करती है मगर मस्स नहीं करनी, और जो आत्मा के स्वाभाविक आनन्द का चिन्ह है।
इन्द्रका वाहन हाथी है जो विस्तार, और वजमवाला है, इसलिये पुद्गलका चिन्ह है। इस विचारका सार यह है कि आत्मा स्वयम् चज फिर नहीं सकती है परन्तु पुदुगलकी महायतासे चल फिर सकती है। इस विचारकी और भी व्याख्या स्वयम हाथो वन में पाई जाती है जिसके एक सिरसे तीन सूंड निकले हुये माने गये हैं और यह एक विलक्षण चिन्ह है जो अकारक भावको सिद्ध करने के लिये निम्सन्देह गढ़ा गया है क्योकि तीन सुपुद्गतके तीन गुणोके चात्रक है अर्थात् सत् रजन व तमस्के जो सांरूयमनके अनुसार प्रकृतिके तीन मुख्य गुण हैं । सोच और विस्तारको शक्ति जो जीवका मुख्य गुगा है इस्टीना करने पर बढ़ने और शत्री ( पवित्रता या पुण्य ) से पृथक होने पर अत्यन्त लघु रूप धारगा कर कमज ( महस्रार चक्र ) दण्ड ( अनुमानत: मेरु दण्ड ) के भीतर छिप जाने से दर्शायी गई है ।
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फुट नोट नं ५ केवल थोड़े से विचारनेमे यह विदित हो जायगा कि यह दर्शन शास्त्र न तो हर्षदायक तौर पर निर्माण किये गये हैं और न वह वैज्ञानिक अथवा सैद्धान्तिक शुद्धता से लक्षित हैं । प्रारम्भ में ही वह सैद्धान्तिक दृष्टि (नय) वादको भुला देते हैं और बहुत करके प्रमाणकी किस्मों और ज़रायोंसे अपनी अनभिज्ञताको प्रगट करते हैं । उनकी तत्त्व- गणना भी अवैज्ञानिस और भ्रमपूर्ण है। सैद्धान्तिक दृष्टिसे देखते हुये विद्वान हिन्दू भी इस बात को मानने पर वाध्य हुये है कि उनके हों दर्शनों में से कोई भी सिद्धान्तानुकूल ठीक नहीं है । निम्न लेख, जो कि ' सक्रड वुक्स औफ दि हिन्दूज' की नवीं पुस्तककी भूमिकासे उद्धृत किया गया है, हिन्दू भावोंका एक अच्छा नमूना है:
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"वह (विज्ञान भिक्षु जो साख्यदर्शन पर एक प्रसिद्ध टिप्पणी टीकाकार है) इस वातको जानता था कि छह दर्शनों में से काई भी... जैसे कि कई बार हम पहिले अनुसार पूर्वीय
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कह चुके हैं पश्चिमीय विचार के सद्धान्तिक ढंगका दर्शन न था बल्कि वे केवल एक प्रश्नो-तरीके सदृश हैं, जिनमें कि सृष्टि उत्पत्ति संवधमें ही वेदों और उपनिषदोंके किसी २ सिद्धान्तको तर्क वितर्क रूपमें एक विशेष प्रकार के शिष्योंका बताया है उनको संसारके गूढ़ विषयोंको समझाये विना हो, कि जिनको वे अपनी मानसिक और प्राध्यात्मिक कमियोके कारण समझने की योग्यता नहीं रखते थे ।"
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(६) मिस्सन्देह भूमिकाकार हिन्दू सिद्धान्तके दोषोको, उसके शिष्योंकी अपक्व बुद्धि के आधार पर छिपानेका प्रयत्न करता है, परन्तु गुरुके पूर्ण ज्ञानको सिद्ध करनेवाले हेतुओंकी अनुपस्थितिमें. बह व्याख्या बुद्धि नहीं वरन विश्वास द्वारा प्रेरित की हुई ही मानी जा सक्ती है । इमको प्रतिपादनकी यथार्थता से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु मूल सिद्धान्तकी योग्यतासे है,. और उनके यथेष्ट न होनेके वाग्में तो साफ २ सवाल है।
'प्रमाण'के उपायों (जरायो) के विषयमे भी इन दीमि एकमत्ता नहीं है । वैशेपिकोंके मतानुसार प्रत्यक्ष और अनुमान (Observation and inference ) ही केवल माननीय प्रमाण है, नैयायिक लोग इन दोनोके अतिरिमत शब्द (आगम ) व उपमा को और बढ़ाते है, और मीमांसक लोग 'पर्धापत्ति' (Coro-- Ilary or inference by implication) और कभी २ 'अनु. उपलब्धि' (Inference by negation ) को भी शामिल करते है । परन्तु टपमान ( analogy ) वास्तवमें सिवाय एक प्रकार के 'अनुमानामाम' ( fallacy of inference ) के और कुछ नहीं है, और 'अर्थापत्ति' ( corollary) अनउपलन्धि सचे न्याय संगत अनुमानमें गर्मित है। शेषके तीन प्रांत प्रत्यक्ष ( direct observation ) 999ra (inferenc' ) SI TITA ( relrable testimony ) साधारणतया मत्यमानेके मुख्य उपाय हैं, बावजूद इसके निचशेषिक यागमको नहीं मानते हैं, क्योंकि विश्वसनीय शाती ही उन वस्तुओं के शान प्रालिका द्वार है जो
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'प्रत्यक्ष और अनुमान ( perception and inference ) दोनोंसे परे है। विला शुबहा सांख्यदर्शनमें अह तीमो प्रमाण माने है मगर वह वेदोंकी अभ्रान्तिको साधारण ही मान लेता है और उसकी अनुमान संबंधी विधियों में उपमान भी गर्मित है जैसे इस उदाहरणमें कि सब आमके वृक्षोंमे वौर अवश्य लगा होगा क्योकि एक वृत्तमे वोर लगा हुआ दिखाई देता है (देखो मि० टीकाराम तातियाका अगरेजी अनुवाद प्रकाश किया हुआसांख्य कारिका अंगरेजी अनुवाद पृष्ठ ३०)। इस हिसावले तो एक कुत्तेको दुम कटी देख कर यह परिणाम भी निकल सकता है कि सब कुत्ते दुमोको पटनाते होंगे।
___ अथ हम तत्वांके विषयको लेते हैं जिनका ठोक निर्णय लिये 'बिना सिद्धान्त या धर्ममें सफलता नहीं हो सकी। तत्वोंका भाव उन्हो मुख्य बातों या नियमोसे है जिनके द्वारा अनुसंधान के विषयका अध्ययन किया जाता है, और उसका निर्णय बुद्धिमत्तानुसार करना आवश्यकोय है अर्थात् वेढंगे तोरसे नहीं परंतु वैज्ञानिक ढंगके फायदा करोनाके मुताविक, क्योंकि धर्मका उद्देश और अभिप्राय जीवोंकी उमति और आततः मुक्ति में है इसलिये उसकी खोज भात्माके गुणों और उन कारणोके, जो उसकी स्वाभाविक स्वतन्त्रता ओर शक्तिको घटा देते हैं और जो उसको सिद्धि प्राप्तिके योग्य कर देते हैं, निर्णय करनेके लिये होती है। सच्चे तत्व इस कारण वही हैं जो जैन सिद्धान्त -में वर्णित हैं अर्थात जीव अजीव इत्यादि शेष तो तत्वाभास
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( ८७ )
हैं जो वास्तवमे असत्य हैं मगर तत्वका वस्त्र पहिने हुए हैं।
इन बातोंको मनमें रख कर हम इस बातका मिर्णय करेंगे कि पट् दर्शनों को कहां तक सच्चे तत्योंका पता लगा। प्रथम ही सांख्य दर्शन में निम्न २५ तत्वोंका वर्णन है
(१) पुरुष (जीव )
(२) प्रकृति, जिसमें तोन प्रकारका गुण,
सत्व (बुद्धि)
रजस्, (क्रिया) नमस् (स्थूल ) सम्मिलित हैं ।
( ३ ) मदत, जो पुरुष और प्रकृति के संयोगले उत्पन्न.
होना है
( ४ ) अहंकार ।
( ५-६ ) पञ्च ज्ञान-इन्द्रियां ।
( १०-१४ ) पञ्च कर्म इन्द्रियां - हाथ, पांच, वचन, लिङ्ग,
गुदा ।
(१४-१६) पाच प्रकारकी इन्द्रिय उत्तेजना - स्पर्श, रस आदि जो पाच इन्द्रियोंसे सम्बन्ध रखती हैं ।
( २० ) मन ।
( २१-०५ ) पांच प्रकारके स्थूल भूत-आकाश, वायु, अग्नि, अप, पृथ्वी ।"
इनमें से पहिले दोन तो सदैव हैं शेष २३ उनके संयो गसे विकाश पाते हैं। इस तत्य-गणनाकी योग्यता इस काविल नही है कि जिसकी बुद्धि प्रशंसा कर सके क्योंकि तत्वपन उन
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( ८८ )
जैसे पहिले हो. दो में कुछ थोड़ासा झलकता है । काल गौर आकाश जैसे बड़े मुख्य पदार्थोंको यह विचारमें नहीं लाती जब - कि साधारण वस्तुओं जैसे कर्म-इन्द्रियोंको इनमें अलग स्थान दिये गये हैं। इस बातका भी पता नही चलता कि उनका चुनाव किस आधार पर किया गया है क्योंकि इसी प्रकार के बहुतसे भावश्यकीय कार्य जैसे पाचन क्रिया, रुधिःका संचालन इत्यादि - बिल्कुल छोड दिये गये हैं। यह पूर्ण दर्शन धर्म, आवागमन और, मुकिकी वैज्ञानिक और पूर्णतया वृद्धि अनुसार व्याख्या समझी जाती है तो भी इस विषय में किसी बानके समझानेका प्रयत्न नहीं किया गया है; और आध्यात्मिक विद्याका यह सम्पूर्ण विभाग तत्वोंमे होने के कारण विलक्षण प्रतीत होता है । नैयायिक लोग मिस्न १६ तत्वों को मानते हैं ।
( ६ ) निर्णय (१०) वाद
(११) जल्प
( १२ ) वितण्डा
(१३) हेत्वाभास
(१४) छल
(१५) जाति
( १ ) प्रमाण
(२) प्रमेय
( ३ ) संशय
( ४ ) प्रशा
(५) द्रष्टान्त
( ६ ). सिद्धान्त
( ७ ) अवयव
(८) सर्क
(१६) निग्रहस्थान
- वहां भी एक दृष्टि इस बात के बोध के लिये यथेह है कि
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यह तत्व केवल न्यायका ज्ञान करा सकते हैं। परन्तु न्याय
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(८९) निस्सन्देह धर्म नहीं है, यद्यपि वह व्याकरण, गणमा और अन्य साइन्सेजकी भांति शानका एक उपयोगी विभाग है। अगर न्यायके नियमों को तत्व कहा जा सका है तो हमको व्याकरणके भङ्गों-संशा, क्रिया इत्यादि-और गणित विद्याके नियमोंको भी तत्व कहना पड़ेगा परन्तु यह स्पष्टतया वाहियात है। नैयायिक लोग इस कठिनाईसे अपने दूसरे तत्वके अभिप्रायमें बारह प्रकार के पदार्थोंको शामिल करनेसे यवनेकी कोशिश करते हैं अर्थात् (१) आत्मा (२) शरार (३) शानइन्द्रिय (४) अर्थ ( जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, गर्भित हैं) (५) बुद्धि (६) मन (७) प्रवृत्ति (रचन, मन, या शरीर द्वारा उपयोग) (८) दोष (जिसका भाव राग देप, मिथ्या ज्ञान या मूढ़ता है) (8) प्रत्येक भाव (पुनर्जन्म ) (१०) फल ( नतीजा या परिणाम ) (१९) दुःख ( १२) अपरगे ( दुःखसे छुटकारा )।
परन्तु परिणाम पड़ी गड़बड है क्योंकि दूसरा नत्व प्रमेय से सम्बंध रखना है जिसमें समस्त रेय पदार्थ और इसलिये समस्त अस्तित्व पदार्थ अन्तर्गत हैं और इस कारण वह बारह ही पदार्थों पर सीमित नहीं हो सका है। इस माग (किरम) चंदीमा नियम विरुद्ध होना, इसमें स्पष्ट है कि इसमें अत्यंत
आवश्यकीय बातों जैले प्राव, बंध, संपर और निजगपर विल्कुल ध्यान नही दिया गया है और ऐसी अपनानश्यकीय यातों पर जैसे स्पर्श रस इत्यादि पर आवश्यकासे अधिक जोर दिया गया है। जल्प, वितण्डा और छलका (जातिको शुभारमें
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( ६ ),
न लेने पर भी ) अलग अलग तयोंके तौर पर कायम किया जाना सन मानसिक फूहडपनकी मिसाल है ।
वैशेषिक लोग निम्न पदार्थोंका उल्लेख करते हैं
(५) विशेष
(६) समवाय
( ७ )
असाव
"
"
सामान्य
परन्तु यह भाग बन्दी तत्व-गणना नहीं है वल्कि अरस्तू और मिलके तरीकोंके सदृश एक प्रकारकी विभाग बन्दी है चुनांचे मेजर पी० डी० वालुके प्रकाश किये हुए कणाडके वैशेषिक सूत्रों की भूमिका के योग्य लेखकने इस बात को अपना सच्चा कर्तव्य समझा कि इस दर्शन के दोषोंके लिये पाठकले क्षमा मांगे । वह लिखता है :
(१) द्रव्य
(२) गुण कर्म
( ३ )
( ४ )
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"वैशेषिक दर्शन पदार्थोंको एक विशेष और पूर्ण निश्चित
दृष्टिसे देखता है । यह उन लोगोंकी विचार दृष्टि है जिनके · लिये कणाडके उपदेश बनाये गये थे। इस कारण वह एक ( उतना पूर्ण व स्वतन्त्र विचारोंका दर्शन नहीं है जितना कि
वह वैदिक और अन्य प्राचान ऋषियोंकी जो कणाडके समय के पूर्व गुजरे हैं शिक्षाकी, उसकी उत्पत्तिके उपकरणों के लिहाज़ से वृद्धि या प्रयोग है । "
वैशेषिकोंकी तत्वगणनाका आरम्भ वास्तव में और कर्मको भागबंदी से होना कहा जा सक्ता है ।
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द्रव्य, गुण, द्रव्य नौ ह
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(६१) प्रकारके कहे जाते हैं। (१-४) चार प्रकारके अर्थात् पृथ्वी, अप, अग्मि व वायुके परमाणु (५) आकाश (६) काल (७) दिक (८) जीवात्मा (8) मन । गुण निन्न प्रकारके हैं अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्श संख्या, नाप, प्रथकना, संयोग, विभाग, पूर्वकता, पश्चान्, समझ, सुख, दुःख, इच्छा, देष, और प्रयत्न। परंतु शब्द आकाशका गुण कहा गया है। कर्म पांच प्रकारका है, अर्थात् उक्षेपन ( ऊपरफी ओर फेंकना) अवक्षेपन (नीचेकी ओर फेंकना) आकुञ्चन ( सिकुडना) प्रसाग्नम् (फैलाना ) और गमनम् (चलना) इस प्रकारको संख्या द्रव्य, गुण और क्मकी है जो वैशेषिकों ने दी है, परन्तु वहां भी हमको सच्चे तत्वोंके वर्णनको क्षों कोशिश नही मिलती है। कुल विधि अत्यन्त अनिश्चित और वेहंगी है। सामान्य परिणाम दोषपूर्ण है । कर्मोकी भागवन्दी मथडीन और गुणों का वर्णन महा और अनियमित है। घायु, अप अग्नि और पृथ्वी चार भिन्न द्रन्य नहीं हैं. वरन् एकही द्रव्य प्रथात् पुद्गलके चार भिन्न रूप है, और शब्द ईथरका गुण नहीं है चरन् एक प्रकारका आन्दोलन है जो पौद्गलिक पटागौके हिलने जुलनसे पैदा होता है। मनको एक नये प्रकारका द्रव्य मानना भी स्पष्ट रीतिसे युक्तिसंगत नहीं है, क्योकि जीव मौर पुदगलले प्रथक मन कोई अन्य पदार्थ नहीं है।
इस प्रकार हिन्दू मिद्धानके तीन अनिप्रसिद्ध दर्शन संधान हीन कि रहिन विचारको प्रगट करते है और पूर्ण रोनिसे
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न्याययुक्त कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। शेषके तीन अर्थात् योग, वेदान्त और जैमिमनीके मीमांसाकी भी दशा इस सम्बन्धमें कुछ इनसे अच्छी नहीं है। वह तत्व आधार पर निर्धारित नहीं हैं और इसलिये उन पर ध्यान देनेकी यहां हमें आवश्यकता नहीं है
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निकटस्थ कालमें कुछ लोगोंने अद्वैत वेदान्तको जिसको शिक्षा यह है कि ब्रह्म पद्दकी प्राप्तिके लिये केवल ब्रह्मका जानना हो आवश्यकीय है, अतिशय महत्वपूर्ण माना है । मगर वेदान्ती यह नहीं बता सक्ता है कि ब्रह्मके जानने परभी वह अव तक ब्रह्म क्यों नहीं हो गया । यदि यह सिद्धान्त वैज्ञानिक विचारके आधार पर अनलम्बित होता तो यह समझा लिया गया होता कि ज्ञान और सिद्धि दो भिन्न बातें हैं, बावजूद इसके कि आत्मा के उच्च आदर्शकी सिद्धिके प्रारम्भके लिये ज्ञान अत्यन्त आवश्यकोय है । यहां भी हमको जैनमत शिक्षा देता है कि सत्य-मार्ग सम्प ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप है परन्तु इनमें से कोई भी प्रथक तौर पर मार्ग नहीं है । पतञ्जलि भी अपनी शक्ति को सामान्य बातोंके वर्णनमें व्यय कर देते है और आत्मा के स्वरूप और बन्धनको नहीं बतला सक्ते हैं और न वह अपने ही मार्गको जिसको वह श्रात्मा और पुग्दुल के अनिष्ट संयोग को दूर करने के लिये सिखलाते है का कारण रूपसे दर्शा सक्के है ।
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