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(२३) इसलिये यह विदित होता है कि सांख्य दर्शनमे मिला हुआ कोई और मत रहा होगा जो गुप्त शिक्षाकी अस्पष्टना ( Inddefiniteness) और अनिश्चितपनसे भरा होगा । यह वात कि इस प्रकारका एक मत था जैन पुराणोमें पाई जाती है जिनके कथनानुसार अनभिक्ष लोग जैनधर्मके प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभ देव भगवान के समयहीमें नाना प्रकारकी धर्म शिक्षा संमार फैलाने लगे थे और स्वयम् पूज्य तीर्थकरका पोता मरीचि नामी जिसने परिषहजयमे असफलता प्राप्त होने के कारण अपने प्राप को योग क्रियामें ऋद्धियों सिद्धियोंके हेतु संलग्न किया था एक ऐसे धर्मका संस्थापक हो गया जो सांख्य और योग दर्शनोके मध्य दर्जेका था । इस प्रकार यह जान पड़ता है कि मरीचिका स्थापित धर्म जो पूज्य तीर्थकरोके मतले प्रान किये सत्यके अंशके आधार परगुप्त रहसवादके ढंगका निर्माण किया गया था, वेदोंकी अलंकृत देवमाला और पश्चातके पुराणोकी असली व प्रारम्भिक बुनियाद है।
इस कथनकी प्रबलता कि वेदोंकी कल्पित देवमाला जैन मतसे प्राप्त हुए सत्यके अंश पर निर्धारित है, प्रत्येक व्यकिको विदित हो जायगी, जो आवागवनके नियम और उसके प्राधारभूत कर्मसिद्धान्तके निकास पर विचार करेगा । यह बात कि यह नियम, वेदोके रचयिता या रचयितायोको
*मरीचि ऋषिका नाम वैदिक मंत्रोंके बनानेवाले ऋमि कवियोंमें ऋग्वेदमें वाकई दिया हुआ है।
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