________________
(१५) कि दिल इस घातके मानने पर तत्पर हो जाता है कि यह एक ऐसा फल्सफा है जिसको किसी ऐसे प्रारम्भिक मतके ऊपर, जिसमें सब पदार्थोंमें जान मानी गई हो और जो सब प्रकारके जीवोंकी रक्षा करनेपर तुला हुआ हो, पीछेसे गढ़ कर लगा दिया गया हो। परन्तु ऐसा विचार इस वातसे विरुद्धतामें पड़ेगा कि यह कर्म सिद्धान्त अगर पूर्णतया विस्तारपूर्वक नहीं, तो भी विशेपतया अपने मुख्य स्वरूपमें पुरानेसे पुराने शास्त्रोमें उपलब्ध है और उनमें जो भाव दिखलाये गये हैं उनके उद्देश्य में पहिले ही से सम्मिलित है। और न हम यह अनुमान कर सकते है कि कर्म सिद्धान्तके विषयमें शास्त्र प्रारम्भिक "कालके पश्चात्को दार्शनिक उन्नति को प्रगट करते है। इस कारणमे कि श्रास्त्रव, सवर और निर्जरा आदिके यथार्थ भाव इसी मानीमें समझे जा सकते है कि कर्म एक प्रकारका सूक्ष्म माद्दा है जो प्रात्मामें आता है ( आस्त्र) उसका आना रोका जा सक्ता है अर्थात् उसके आनेके द्वारे बंद किये जा सक्ते हैं ( सवर ) और जो कर्मोका माहा पात्मामें सम्मिलित है वह उससे अलग किया जा सक्ता है (निर्जरा ) जैन लोग इन परिभाषाओंका अर्थ शब्दार्थमें लगाते हैं और इनका प्रयोग मोक्षसिद्धान्तके समझानेमें करते हैं (आस्रवोंका संवर और निर्जरा मोक्षके कारण हैं।) अब यह परिभाषायें इतनी ही पुरानी हैं जितना