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निकलता है कि हिन्दू धर्म जैसा श्राज है वैसा सदैव नहीं रहा
और यह स्पष्ट है कि उसमें समय समय पर वृद्धि होती रही है ताकि उसमें पूर्णताका वह दृश्य आजाय जो निस्सन्देह वेदोंमें उनके पूज्य मंत्रोंकी रहस्यमयी भाषाके होते हुए भी नहीं पाया जाता है। जब यह विचारते हैं कि वेदोके समय अथवा वेदोंके पूर्व हिन्दू धर्मके सिद्धान्त ( Teachings ) क्या रहे होंगे तब वही कठिनाई पाकर पड़ती है जिसको उपनिपदके ले. खक भी पूर्णतया तय नहीं कर सके क्योंकि वेदों में किसी वैशानिक अथवा व्यवस्थित धर्मका वर्णन नहीं है. सुतरां केवल देवताओंको समर्पितमंत्रोंका संग्रह है जो अब सबके सब विविध प्राकृतिक शक्तियोंके ही रूपक (अलंकार) माने जाते हैं । ब्राह्मण शास्त्र तो स्वयं ही वैज्ञानिक होनेका दावा नहीं करते बल्कि वे यक्ष विषयक क्रियाकाण्डसे परिपूर्ण है। और उपनिषदोंकी बावजूद उनकी दार्शनिक प्रवृतिके भी समझने के लिए लम्बी व भारी टी. काओंकी आवश्यकता है। और वे ऐसी कथाओं आदिसे भी परिपूर्ण हैं जैसे ब्रह्माके स्वयं अपनी ही कुमारी पुत्री सद्र पासे बारबार बलात्कार सयोग करनेसे सृष्टि उत्पन्न होना (वृहद श्रारण्यक उपनिषद् १।४।४। षट्दर्शनों में भी जिनमें धर्म को कायदेसे तरतीव देनेका प्रयल है एक दूसरेका खण्डन ही किया गया है। तात्पर्य यह है कि प्राज भी कोई मनुष्य इस वातको नहीं जानता कि हिन्दू धर्मका असली स्वरूप क्या है यधपि ईश्वरशून्य सांख्यमतावलम्बी भी वैसा ही हिन्दू कहलाता है जैसा कि विष्णुका भक्त या शीतलाका उपासक जो चेचककी देवी हैं ! याचसंवन्धी विषयमें, इसमें कोई