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न्याययुक्त कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। शेषके तीन अर्थात् योग, वेदान्त और जैमिमनीके मीमांसाकी भी दशा इस सम्बन्धमें कुछ इनसे अच्छी नहीं है। वह तत्व आधार पर निर्धारित नहीं हैं और इसलिये उन पर ध्यान देनेकी यहां हमें आवश्यकता नहीं है
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निकटस्थ कालमें कुछ लोगोंने अद्वैत वेदान्तको जिसको शिक्षा यह है कि ब्रह्म पद्दकी प्राप्तिके लिये केवल ब्रह्मका जानना हो आवश्यकीय है, अतिशय महत्वपूर्ण माना है । मगर वेदान्ती यह नहीं बता सक्ता है कि ब्रह्मके जानने परभी वह अव तक ब्रह्म क्यों नहीं हो गया । यदि यह सिद्धान्त वैज्ञानिक विचारके आधार पर अनलम्बित होता तो यह समझा लिया गया होता कि ज्ञान और सिद्धि दो भिन्न बातें हैं, बावजूद इसके कि आत्मा के उच्च आदर्शकी सिद्धिके प्रारम्भके लिये ज्ञान अत्यन्त आवश्यकोय है । यहां भी हमको जैनमत शिक्षा देता है कि सत्य-मार्ग सम्प ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप है परन्तु इनमें से कोई भी प्रथक तौर पर मार्ग नहीं है । पतञ्जलि भी अपनी शक्ति को सामान्य बातोंके वर्णनमें व्यय कर देते है और आत्मा के स्वरूप और बन्धनको नहीं बतला सक्ते हैं और न वह अपने ही मार्गको जिसको वह श्रात्मा और पुग्दुल के अनिष्ट संयोग को दूर करने के लिये सिखलाते है का कारण रूपसे दर्शा सक्के है ।
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