Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 83
________________ ( 18 ) 1 यह परिणाम निकाला कि द्रव्य कर्तव्यका भी कोई कारण अवश्य होगा, और अपनी इस अस्पष्ट और धुंधलो कल्पनाका कोई युक्तियुक्त आधार न पा कर एक नई प्रकारकी शकि अदृष्ट ( अ नहीं + दृष्ट = दृष्टिगोचर, अतः अनजान ) को जल्दो में कायम कर दिया | कवि-कल्पनाके उनी रुझान वश जो देवालय के और देवताओं की उत्पत्तिका कारण हुई, भट्टए भी समयानुसार दैविक गुणोंसे सुसजित हो गया और चूंकि वह आरम्भ होले और सब देवताओंके कर्तव्यका निकास और इसलिये उन सबसे अधिक बलवान अर्थात् ईश्वर ( ईश्वर वह है, जो ऐश्वर्य रखता हो अर्थात् वलसाम्राज्य या स्वामोपन ) माना गया था, इसलिये अन्ततः वह अप्रगट महेश्वर के सदृश संमार में प्रसिद्ध हो गया । हिन्दू देवालय में सर्वोच्चस्थान पा कर इस अदृष्टने अपना राज हिन्दू दुनिया के आगे फैलाना आरम्भ किया और अपने कुछ पूर्वाधिकारी मित्रादि की भांति शीघ्र ही अन्य देशों में जहां वह सब प्रकारके अच्छे और बुरे पदार्थका कर्त्ता माना गया, अपना सिक्का जमा लिया। चुनांचे 'इसीयह' नवी अपने ईश्वरको पुण्य व पाप दोनोंका कर्त्ता ठहराता है (देखो इजीलकी इसी यह नवीकी किताब अध्याय ४५ आयात ६ व ७ ) । मुहम्मदने भी 'इसोयह' की सम्मति के स्नीकार करने पर संतोष किया और इस बातको कह दिया कि नेकी और बदी दोनों ईश्वर कृत हैं, क्योंकि और कोई कर्त्ता दुनियामे नहीं है । पुण्य और पापके कर्त्ताके रूपमें सीधा सादा अगष्ट जिसकी उत्पत्ति कदा 1

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