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जैसे ईसाई मत में बाप और बेटे ( खुदा और ईसू ) का समकालीन होना। इनका भाव उनके स्वरूपोकी दार्शनिक मूल ( निकाल ) का पता लग जाने पर सुलभ और सहज होता है वरना भूल में पड़ने और भटकनेका कारण है ! उस मनुष्यको, जो अमरीय शासन और देवाधिपत्यके भेदका पता लगाना चाहता है, चाहिये कि सबसे पहिले नयवादका प्राभ्यञ्जन घृत, जिसके बिना बुद्धिमत्ताकी कुञ्जी रहस्यवादके मुर्चा लगे हुये तालों में जो शताब्दियों से बन्द पड़े हुये हैं नहीं फिरती है, प्राप्त करे । फिर उसको चाहिये कि वह अपने निजी विश्वासों और प्रिय विचारोंकी गठरी बांध कर अपने से दूर फेक दे, तब उन शक्तियों के पूज्य स्थानमें प्रवेश करे जो तमाम प्राणीमालकी प्रारब्धोका निर्माता हैं। केवल इसी प्रकार वह वास्तविक वस्तुस्वरूपमय सत्यको पा सकेगा और भ्रम व पक्षपातका शिकार होनेसे बचेगा। तीव्र बुद्धिवाले पाठक अब इस वात को समझ लेंगे कि प्रात्मा जो इन्द्रियों द्वारा पौद्गलिक पदार्थोका भोगता है इन्द्रके काल्पनिक रूपान्तर में द्यायुस और पृथ्वी ( जीव द्रव्य और पुद्गल ) की संतान है और तिस पर भी वह अपने पिताहीका पिता इस मानी (अर्थ) में है कि सिद्धात्मन् स्वयम् अपवित्र जीवका अपवित्रता र हित शेषभाग है । यह बात कि यह विचार सदैव
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* विविध अपेक्षाओं या दार्शनिक दृष्टियोंके ध्यानमें रखनेको नयवाद कहते हैं ।
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