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हैं; और सूर्यास्त उसके पोछेके भाग हैं, जब वह जमुहाई लेता है तो वह बिजली होती है, जब वह हिनहिनाता है तो वह गजेता है। जब वह मूनता है तो वह बरसता है; उसका स्वर वाणो है। डिन वास्तवमें उसके सामने रखे हुये यज्ञके घरतनकी मांति है, उसका पलना पूर्वी समुद्र में है रात वास्तव में उसके पीछे रक्खा हुआ वर्तन है, उसका पलना पश्चिमी समुद्र में है, यह दोनों यक्षके वतन घोड़े के गिर्द (इधर उधर ) रहते है। घुड़दौड़के अश्वके तौर पर वह देवताओं का वाहन है। युद्धके घोड़े की भांति वह गंधोंकी सवारी है; तुरंगके सदृश वह असुरों के लिये है। और साधारण घाड़े के समान मनुष्यों के लिये है। समुद्र उपका माथी है, समुद्र उसका पलना है।'
"यहाँ संसार वलिदानके घोड़े के स्थानमें पाया जाता है, शायद इसके पीछे यहो भाव है कि योगीको संमारका त्याग कर देना चाहिये (देवो वृहदात्ययक अनिषद ३१ व ४३ ). निस प्रकार कुटुम्यका पुरुष यन्त्र के वास्तविक प्रतादों (Gifto) को त्याग देता है। ठीक उसी प्रकार छादोग्य उपनिषद (अध्यायश्लोक-१) जो उदगानाके लिये है सच्चे उदगाना समान शिक्षा देता है। ओ३म! शब्दको जो ब्रह्म (परमात्मा प्रतिक्रम ) का विन्ह है जनना और उसका आदर करना और मंत्र जिसका संबंध होता' से है ऐने आरण्यकम् (२,१, २) में उसा प्रकार अर्थका परिवर्तन किया गया है। तुलनाके लिये देखो ब्रह्मसूत्र