Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 85
________________ (७६) फुट नोट नं० ३. तुल्ला लिये हुनायस्सनके दि सिस्टेम औफ दि वेदांत'का निन्न लिखित विषय पढ़िये (वास जाँस्टन साहयका अंग. रेजी तर्जुमा, पृष्ठ ८): "...... ..यह वात ठीक है कि आरण्यकों में हमको वलिदान के भावार्थके वदलनेको विलक्षण दशा बहुधा मिलती है। यज्ञ संस्कारोंके अमली रीतिसे करने के स्थानमें उन पर भावार्थको बदलकर विचार करना बतलाया है जो धीरे २ सर्वोत्तम विचारों पर पहुंचा देता है । उदाहरणके लिये वृहदारण्यकका प्रारम्भिक विषय (जो अधोधायुके लिये नियत है ) मिसमें अश्वमेधका वणेन है ले लीजिये: 'ओ३म् ! प्रातःकाल वास्तवमें यज्ञके अश्वका सिर है। सूर्य उसका नेत्र है वायु उसकी स्वाम है। उसका मुख्य सर्वव्यापी अग्नि है। कण वलिदानके घोड़े का शरीर है, स्वर्गलोक उस को पीठ, आकाश उसका उदर और पृथ्वी उसके पांव रखने की चौकी है। ध्रुव ( Poles ) उसके कटिभाग हैं, पृथ्वो का मध्य भाग उसकी पलियां है, ऋतुर्ये उसको अवयव है, महीना और पक्ष उसके जोड़ हैं, दिन और रात उसके पात्र हैं; तारे उसकी हड्डियां है, और मेव उसका मांस है । रेगि स्तान उसके भोज्य हैं जिनको वह खाता है। नदियां उसकी अंतड़ियां हैं; पहाड़ उसके जिगर और फेफड़े हैं; वृक्ष और पौधे उसके केश हैं; सूर्य उदय उसके अगाडीके भाग

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