Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 77
________________ (६८) अभिप्राय ८ स्थानोंसे है, अर्थात् (१) पित्तज शरीर (२) ग्रह (३) वायुमण्डल (४) अलौकिक स्थान (५) सूर्य (६) आमाशकी किरणें (७) उपग्रह और (८) तारागण (देखो दि टामिनालोजी औफ दि वेदुज़ पृष्ठ ५५) मगर यह अधिक संभव है कि शारीरिक अङ्गों के विद्यमान कर्तव्य हों क्योंकि वे जीवको शक्तियों के विविध स्वरूप हैं। अथवेदके एक वाक्यमें (देखो दि टर्मिनालोजो औफ दि वेदज़ पृष्ठ ५३) उनका उल्लेख विविध शारीरिक कतव्योंकी भांति किया गया है ओर वृहदारण्यक उप. निषदके अनुसार ३३ देवताओंके पतलानेवाला मार्ग हृदय. मांकाशके भीतर है ( देखो दि परमान्यन्ट हिस्ट्री औफ भारतवर्ष भाग १ पृष्ठ ५३२ )। अब हम आदित्योंकी ओर ध्यान देंगे जिनको संख्या १२ कही जाती है। मगर यह विदित है कि वह सदैव इतने नहीं माने गये हैं। इब्ल्यू-जे विलकिज साहबके मतानुसार देखो दि हिन्दु मेथालोजी पृष्ठ १८): "यह नाम ( आदित्य ) केवल आदित्यके वंशजोंका हो , वाचक है। ऋग्वेदेके एक वाक्यमें छ? के नाम वर्णित है। . अर्थात् (१) मित्र (२) मायमन, (३) भाग, (४) वरुण (५) दक्ष . * Cई जैकोलियट साहच अपनी पुस्तक दि औकल्ट साइन्स इन इण्डियाके पृष्ठ १८ पर मनुके आधार पर बतलाते हैं कि जीव स्वयम् देवताओं का संग्रह है।

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