Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 74
________________ क्योंकि आयु वरावर कम होती रहती है अर्थात् गुजरती रहती है और अंलकारमें पथिक रूपसे बांधी जा सकती है। पूपनके दांतोंका गिरना जिसका वर्णन पुराणों में आया है अनुमानतः इस. लिये है कि उसके स्वरूपको निस्सन्देह साबित कर दे क्योंकि यह वृद्धावस्थाका लक्षण है । इसलिये बलिदानमें पूपणके माग का अर्थ पुण्य कर्मोसे उत्पन्न होनेवाला आयुक्रम होगा। यहां भी हम जैन सिद्धातको इस बातकी व्याख्या करते हुये पाते है जो हिन्दू शास्त्रों में भ्रमपूर्ण है क्योकि हिन्दू शास्त्रों में कोई निश्चित नियम पालन और बंध संबंधी दर्ज नहीं है और इस कारणवश वह व्योरा रहित अस्पष्ट विचारों पर संतुष्ट रहने के लिये वाध्य है । वास्तवमै कर्म बंधन चार दशाओमें पाया जाना है और इसलिये उसके समझने में निम्न लिखित वातोके जानने की आवश्यकता है-(१) १४८ कर्मप्रकृतिका स्वरूर जा जैन सिद्धान्त अन्धोंमें वणित है (२) कर्म प्रकृतियोको मर्यादा । ३) बंध की नीवना और (४) मिकदार अर्थात् पुहलकी मिकदार जो आत्मा शामिल हो। यह चारो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश बंध क्रियानुसार कहलाते हैं और इनके ज्ञान विना यह नहीं कहा जा सक्ता है कि कर्म के नियमले जानकारी प्रात हुई । भव जहा तक श्रायुका संबंध है वह शेषके सात को इस घातने विलक्षण है कि उसकाध जीवन पर्यंत एक ही दफन होता है जबकि और शेष कर्माका हर समय होता रहता है मानवी जो पौद्गलिक मादा आता है उसको यों कह सकते है

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