Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 38
________________ (२६) छिपानेकी कोई आवश्यकता नहीं है और इस वजहसे उनमें यह इच्छा नहीं मानी जा सक्ती है कि वह ऐसी भाषाका प्रयोग करें जिसके अर्थमें भूल पड़े अर्थात् जो मटकानेबाली हो । देव. वाणी बड़े पुजारियों या पुरोहितों का रहस्यमय कवियों या सन्तों द्वारा नहीं हो सक्ती है। इस विषयमें विविध मतोंके शास्त्रोंका पढ़ना यथेष्ट रीतिसे हमको इस बात के मापनेपर वाध्य कर देगा कि वह वाक्य या हुक्म या श्राज्ञा जो ईश्वरीय कही जाती है कभी २ उसी शालके किसी दुसरे वायसे खंडित हो जाती है और बहुधा किसी दूसरे मतकी आमासे । यह दरास्ल । ईश्वरीय प्रेरणा नहीं है बल्कि किसी विचार में उन्मादके दर्जे नक मुग्ध हो जाना है और इसका भेट यह है कि पुरोहित या भविष्यवाणी कहनेवाला व्यक्ति अपने आपको रोजा, दान, भनि प्रादिके कानान्तरित अभ्यासमे एक प्रकारको अनियमित समाधि अवस्थामें प्रवेश करने की आदत डाल लेता है जिसमें उसके प्रात्माकी कुछ शक्तियां थोडी या बहुत प्रगट हो जाती हैं । लोइनको ईश्वरीय प्रकाशका चिन्ह समझ लेने हैं और सब प्रकारको वाहियात धोर कपोल कति सम्मोतयां उनके प्राचार पर गढ़ डालते हैं। मगर यथाथ यह है कि विवेक करनेवाली बुद्धि के कार्यहीन हो जाने के कारण मनमे उपस्थित विचारों से जो सबसे अधिक प्रबल (मव) होता है उसका भविष्यत् वक्ताके चित्र क्षेत्र पर शासन हो जाता है जिससे उसकी वाणी उसके व्यक्तिगत विचारों

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