Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 36
________________ (२७) चूंकि श्री ऋषभदेवजी वामन औतारसे भी पूर्व हुए हैं। इस लिये वह ऋग्वेदके मन्त्रसे बहुत पहिले समय में गुजरे होंगे । इस प्रकार यह बात संशयरहित है कि वेटोंकी रचना वर्तमान कालमें जैन मतके स्थापन होने वहुत काल के पश्चात हुई। हिन्दु लोग स्वभावतः वेदोको ईश्वरेको कृति मानते हैं परन्तु उसके मन्त्रोसे यह बात अप्रमाणित पाई जाती है, यथार्थ भावमे सत्यज्ञानका प्रकाश दाही तरहसे होता है (अ) या तो श्रात्मा स्वयम् मान द्वारा सत्यको जान लेता है या (ब) सर्वन गुरु (तीर्थकर ) निर्वाण प्राप्तिक पहिले सत्य साना दूसरो को उपदेश देने है । वेट इस दूसरी संज्ञामें आते हैं क्यो कि उनको श्रुति, जिसका अर्थ 'तुना गया है' है, कहते हैं । इस लिये यह आवश्यकीय हुआ कि हम अंसली श्रुति या शास्त्रके * यह वात कि वेदोंका भाव गुप्त है इस प्रमाणकी सत्यतामे बाधा नहीं डालती है क्योंकि रामायण और महाभारतको पद्यों और पुराणों की भाति वेदोंके रहस्यमयी काल्पनिक काजियों अलकारों और कथानकोके बनाने में, इतिहासके मशहूर मारुफ, वाक्यात और घटनाओं का प्रयोग किया गया है । जैनपुराणोंसे यह सावित है कि श्रीऋषभदेव भगवान ओर विष्णु ऋपि, जो वामन अवतारके नामसे प्रसिद्ध हुये, इस कारणले कि उन्होंने एक दफा तपस्यासे प्राप्त हुई बैंक्रियिक ऋद्धि द्वारा अपने शारीरको योनेके कदका बनाकर और फिर पश्चातको अविश्वसनीय विस्तार दिवाकर कुछ साधुओंका कष्ट दूर किया था, दोनों ऐतिहासिक व्यक्ति थे ।

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