Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 60
________________ ( ५१ ) फुट नोट नम्बर १ इस क्रूरताके नवीन परिवर्तनका निन्न वृत्तान्त जन पुराणों की सहायतासे इस प्रकार पाया जाता है: एक समय राजा वसुके राजमें जिसको बहुत काल व्यतीत हुआ एक शख्स नारद और उसके गुरु भाई परबतमें 'राज' के अर्थ पर जिसका प्रयोग देव-पूजामें होता था, विवाद हुआ। इस शब्दके वर्तमान समयमै दो अर्थ हैं, एक नो तीन वर्पके पुराने धान जिनमे अंखुपा (अंकुरा ) नहीं निकल सक्ता है और दूमरा 'वकरा'। पर्वनने, जो अनुमानतः मांस भक्षणका विलासी था इस बात पर जोर दिया कि इस शब्द का अर्थ चकरा ही है, मगर नारदने पुराने अर्थकी पुष्टि की । सर्व जनताकी सम्मति, सनातन रीति और प्रतिवादीकी युक्तियोंसे परवतकी पराजय हुई, मगर उसने राजाके समक्ष इस घटनाको उपस्थित किया, जो स्वयम् उसके पिताका शिष्य था। राजाफी सम्मति परवतके अनुकूल प्राप्त करनेके हेतु परव. -तकी मा छिप कर महलोंमें गई और उससे अपने पतिकी गुरुदक्षिणा मांगी और इस वातकी इच्छुक हुई कि मुंह-मांगा पर पावे। वसुने, जिसको इस वातका क्या गुमग्न हो सकता था कि उससे क्या मांगा जायगा, अपना पवन दे दिया। तव परवतकी मांने उसको पतलाया कि वह परवतके अनुकूल फैसला करे और यद्यपि वसुने अपनी प्रतिक्षासे हटनेका प्रयत्न किया। मगर पर्वतकी माने उसको ऐसा करनेसे रोका और

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