Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 64
________________ विरोध हुआ, परन्तु वहुत काल तक मेले हुये असा दुःखो और पर्वतकी अतुल प्रतिष्ठाने जो पूजाके दो तक पहुंच गई थी, और मुख्यतः उस श्रद्धाने जो उसकी अद्भुत शक्तिके कारण लोगोंमें उत्पन्न हो गई थी और जो वास्तवमै उसकी कार्य सफलताके अनुभव पर निर्धारित थी, मन्द साहसवाले हृदयोंको उसको आज्ञापालनक लिए प्रस्तुत कर दिया। सबसे पहले मांस बाज़ वाज़ रोगोंमे दवाईक तौर पर दिया गया और वह कभी आशाजनक परिणामके उत्पन्न करनेमें निष्फल नहीं हुआ। जिस पातको परवत वादविवादसे साबित नहीं कर पाया था उसीको वह अपने पिशाच मित्रकी सहायतासे इस कार्य परिणित युक्ति द्वारा सावित करनेमें फलीभूत हुआ। धीरे धीरे उसके शिष्योंकी संख्या वरावर बढ़ती गई । यहा तक कि परवत के इस घातके विश्वास दिलाने पर कि वलिसे पशुको कष्ट नहीं होता है वरन् वह सीधा स्वर्गको पहुंच जाता है, 'अन'-मेध (यश) किया गयो । यहां भी महाकालकी शक्तियो पर भरोसा किया गया था जो कार्य हीन नहीं हुई, क्योंकि ज्यो ही लिपशुने पवित्र कुरीके नीचे तड़पनाव कराहना प्रारम्भ किया, त्योही महा. कालने अपनी माया-शक्तिसे एक विमान में एक बकरेको हर्पित वा प्रसन्न स्वर्गकी और जाते हुये बना कर दिखा दिया। सगरके राज्यके वुद्धि भ्रष्ट लोगोंको विश्वास दिलानेके लिये पर किसी चीजकी आवश्यकता नहीं रह गई । श्रज मेधके पश्चात् गोमेध हुमा, गोमेधके शद अश्वमेध और अन्ततः पुरंयमेध भी बडे

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