Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 71
________________ ( ६२ ) ज्ञानकी रोतियोंके अनुसार स्वादिष्ट भोज के रूपमें बनाया जाय ।" शब्दोको बड़े हरूकोमें हमने लिखा है और उनका प्रभाव हर एकको स्वीकृत होगा जो स्वामी दयानन्द के इस कथनको ध्यान मे रक्खेगा कि उपरोक्त सुक्त 'अश्व विद्या का वर्णन है जो घोड़ोंके लिखाने और विजलीकी भांति विश्वव्यापी उष्णता के विज्ञान से संबंध रखता है" ( देखो टर्मि नालोजी आफ दि वेद्ज़ पृष्ठ ३८ ) | दुर्भाग्य वश इस अयकी अश्व विद्या अर्थात् भोजन सबंधी कुशलतासे प्रसग योग्यता किसी प्रकार युक्ति द्वारा प्रगट या प्रामाणिक नहीं की गई । विपक्षी अर्थमे भी वास्तवमे कोई कुशलता नहीं है यदि उस को शब्दार्थमें पढ़ा जावे । परन्तु उसकी प्रसंग योग्यता उसके एक विद्यमान चालू रीतिले जो निःसन्देह बहुत प्राचीन काल से चली आई है, अनुकूलता रखने के कारण स्पष्ट है । 1 निस्सन्देह यह बात सत्य है कि वैदिक परिभाषाओंके अर्थ करीव २ सभी योगिक है जो रूढ़ि से, जिसका भाव इच्छानुसार रख लिया जाता है, भिन्न जाती है । परन्तु यह भौ इतना ही सत्य हैं कि अनुमानतः संस्कृत भाषाका तमाम कोप ऐसे शब्दों से परिपूर्ण है जो मूल धातुओंसे मुख्य मुख्य नियमोंके अनुसार निकलते है । यह विशेषत व्यक्ति वाचक शब्दों तक पहुंच गई 2. विशेषकर व्यक्तिषोंके नामोमें पाई जाती है, जैसे राम वह है

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