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(१) वह सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान द्वारा उत्पन्न होती है। (२) वह तर्क वितर्क किसी प्रकार खण्डन नहीं हो सक्की, अर्थात् न्याय ( मन्तक ) उसका विरोध नहीं
कर सका ।
( ३ ) वह प्रत्यक्ष, अनुमान और शसे ( साक्षी ) मुताविक होती है।
(४) वह सर्व जीवों की हितकारी होती है, अर्थात् वह किसी प्रकार भी किसी प्राणोके दुःख या कष्टका कारण नहीं हो सकी - जानवरोको भी दुःख और कटका नहीं ।
( ५ ) वह वस्तु के यथार्थ स्वरूपकी सूचक है। और:( ६ ) उसमें धार्मिक विषयमें भूत और भ्रम दूर करने की योग्यता होती है ।
सबै शास्त्रोके उपर्युक्त लक्षणोंको ध्यान में रखते हुए यह एक निगाह में साफ होजाता है कि वेदों के बारेमें यह दावा करना कि वह अनि होनेके कारण ईश्वरीय वाक्य है, समझ दार अकलके लिये नामुमकिन है । अगर्ने यह बात पहिले पहिल नागवार मालूम होती है तो भी उससे गुरेज़ नामुमकिन है, क्योंकि स्वयं हिन्दुओंने अपने वेदोंसे कई बानोंमें विरोध कर लिया है। उदाहरण के तौर पर वह इन्द्र, मित्र, वरुणा व अन्य
वैदिक देवताओं में से बहुतों की अब पूजा उपासना नहीं करते है इस विरुद्धताका क्या अभिप्राय हो सका है ? अगर यह नहीं कि
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